नेताओं के बिगड़े बोल

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चुनावी सियासत इस दर्जा प्राथमिकता पर है कि दलों के बीच कोई अंतर शेष नहीं रह जाता। सबकी एक ही फिक्र कि येन-केन-प्रकारेण सत्ता का स्वाद चखने को मिले। इसके लिए यदि देश के महानायकों को भी निशाने पर लेना पड़े तो कोई हर्ज नहीं। पिछले दिनों भाजपा सांसद अनंत हेगड़े ने एक विवादित बयान में स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी की भूमिका पर ही सवाल उठा दिया। कहा कि आजादी की पूरी लड़ाई अंग्रेजों की सहमति और सहयोग से लड़ी गई थी। महात्मा गांधी के नेतृत्व में चला स्वतंत्रता आंदोलन एक नाटक था। हालांकि इसको लेकर सोमवार को संसद में जोरदार हंगामा हुआ और उस भारी शोरशराबे का आलम यहा रहा कि ऐतराज जताने वाले माननीय भी बेलगाम दिखे। वैसे पार्टी की तरफ से कारण बताओ नोटिस के बाद खुद हेगड़े ने सफाई दी कि उन्होंने अपने बयान में किसी का नाम नहीं लिया था। दरअसल यहां सवाल नाम लेने का नहीं है बल्कि इशारों-इशारों में वही कहा गया जिस पर विरोधी दलों ने आपत्ति जताई है। यह ठीक है कि आजादी की लड़ाई सबने अपने-अपने तरीके से लड़ी थी। चाहे वो सशस्त्र आंदोलन रहा हो या फिर अहिंसा का, सभी का लक्ष्य देश को आजाद कराने का था।

इसलिए श्रेय सबको जाना चाहिए इसीलिए महात्मा गांधी के साथ ही देश सुभाष चन्द्र बोस व अन्य क्रांतिकारियों के प्रति भी कृतज्ञता का भाव रखता है। पर इस तरह से बापू को निशाने पर लेने का यह पहला वाकया नहीं है। इससे पहले भी भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञा ठाकुर भी कहीं ना कहीं इसी तर्ज पर अपनी बात रख चुकी हैं। उन्होंने तो बापू के हत्यारे को देशभक्त बताने की हिमाकत की थी। उनसे भी जवाब तलब हुआ था। यह वाकई दुखद है बापू को लेकर मोदी सरकार संजीदा है। उनको कृतज्ञता ज्ञापित करने के भाव से स्वच्छता अभियान समेत कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ज्यादातर सार्वजनिक उद्बोधनों में बापू के जीवन दर्शन की बातें प्रमुखता से होती हैं। इसीलिए यह सवाल और महत्वपूर्ण हो जाता है कि भाजपा के भीतर से ही ऐसी विरोधाभासी बातें सामने क्यों आ रही हैं। पहले निशाना साधा जाता है, फिर उस पर लीपापोती शुरू हो जाती है। इस तरह की राजनीतिक परिस्थिति किसी के हित में नहीं है। जो देश के नायक हैं, जिनसे यहां ही नहीं, विश्व के दूसरे मुल्कों में भी लोग प्रेरणा लेते हैं। वैसे भी किसी का छिद्रान्वेषण करने से उसकी प्रासंगिकता कम नहीं हो जाती। बापू को लेकर दिक्कत यह है कि वह किसी एक पाले में नहीं रखे जा सकते।

उनके व्यक्त्वि का प्रमाण है जो लोग उनसे असहमत होते हैं, वे भी उनसे संबद्ध करके अपनी सियासत चमकाते हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बीच इस तरह के अटपटे और विवादित बोलों की आवृत्ति बढ़ जाती है। यही वजह है कि इससे पहले अभी हाल ही में मोदी सरकार के राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने भी जनसभाओं में विद्वेष को बढ़ावा देने वाले नारे लगवाये थे। चुनाव आयोग की तरफ से उन्हें नोटिस भी थमाया जा चुका है। हालांकि अब पार्टी की स्टार प्रचारकों की लिस्ट से उनका नाम काटा जा चुका है। उनसे पार्टी को सख्ती से पेश आना चाहिए था। यदि ऐसा होता तो संदेश ठीक-ठाक जाता। पर यहां तो अंदरखाने लगता है कि नेतृत्व के भीतर भी ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने की एक समझदारी है। इस दौड़ में कोई पार्टी पीछे नहीं है। ओवैसी की तो राजनीतिक मजबूरी समझी जा सकती है उन्हें धु्रवीकरण की राजनीति से आगे बढऩे की उम्मीद दिखती है। पर कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय फलक पर प्रभाव रखने वाले दलों को इस तरह उल-जलूल बयानों से बचना चाहिए। यह सियासी मुद्दों का दीवालियापन नहीं तो और क्या है कि निर्भया गैंगरेप के दोषियों को लेकर भी सियासत चरम पर है।

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