नीतीश के मुंह फुलाने का कारण

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कहते हैं काठ की हांडी दोबारा नहीं चढ़ती। पर देश के नेता इस कहावत को बार-बार गलत साबित करते हैं। वे काठ की हांडी न सिर्फ दोबारा चढ़ा लेते हैं, बल्कि उसमें कुछ न कुछ पका भी लेते हैं। इसी अनुभव के आधार पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार काठ की हांडी दोबारा चढ़ाने का प्रयास करते दिख रहे हैं। वे भाजपा से नाराज हैं और उसे दिखाने में उनको कोई हिचक भी नहीं है। पर पिछली बार 2013 में भाजपा से नाता तोड़ने के औचक फैसले से उलट इस बार फैसले से पहले अपनी जमीन मजबूत कर रहे हैं। 2014 के चुनाव नतीजों से जो झटका लगा था उसे वे भूले नहीं हैं।

तभी इस बार वे किसी व्यक्ति के नाम पर नहीं, बल्कि मुद्दों और नीतियों के आधार पर भाजपा से दूरी बना रहे हैं। ध्यान रहे पिछली बार उन्होंने नरेंद्र मोदी के विरोध को मुद्दा बना कर भाजपा से नाता तोड़ा था। एक व्यक्ति के रूप में मोदी का विरोध उनको भारी पड़ा था। इस बार वे नीतिगत मामलों में भाजपा का विरोध करते हुए अपने को उससे दूर ले जा रहे हैं। उन्होंने नागरिकता कानून में संशोधन का विरोध किया है। वे एक साथ तीन तलाक बोलने को अपराध बनाने वाले विधेयक का विरोध कर रहे हैं। उन्होंने जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए का विरोध किया है और अब रेलवे के निजीकरण के प्रयासों का भी विरोध कर रहे हैं।

इसमें एक बात यह भी जुड़ गई कि उनकी पुलिस ने पूरे बिहार में काम करने वाले आरएसएस और उसके अनुषंगी संगठनों के पदाधिकारियों की जानकारी जुटाने का प्रयास किया। इसके अलावा रोजमर्रा की प्रदेश स्तर की राजनीति और सरकार के कामकाज के मामले हैं, जिनसे दोनों पार्टियों के बीच बढ़ती दूरी दिखाई दे रही है। तभी संघ पदाधिकारियों की प्रोफाइलिंग के मसले पर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के दिए बयान से नाराज जदयू के पूर्व सांसद और राष्ट्रीय प्रवक्ता पवन वर्मा ने कहा कि भाजपा चाहे तो अकेले लड़ ले। उन्होंने आगे कहा कि जदयू अकेले लड़ने को तैयार है।

इसमें संदेह नहीं है कि जदयू अकेले लड़ने की तैयारी में है। इसके लिए नीतीश कुमार अपनी सोशल इंजीनियरिंग में बिजी हैं। वे अति पिछड़ा, सवर्ण और मुस्लिम का समीकरण बनाने की कोशिश कर रहे हैं। गैर-यादव, अति-पिछड़ी जातियां मोटे तौर पर उनके साथ रही हैं क्योंकि उन्होंने सबसे प्रभावी तरीके से आरक्षण के कर्पूरी ठाकुर फार्मूले को लागू किया। उन्होंने आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था की। अतिपिछड़ा और महादलित का वर्गीकरण किया। भाजपा के साथ होने के बावजूद मुस्लिम मतदाताओं का एक समूह उनके प्रति सद्भाव रखता है।

इस बीच एक नया घटनाक्रम यह हुआ है कि राजद और भाजपा के बीच नजदीकी ब़ढ़ने की खबरें आने लगी हैं। चुनाव नतीजों के बाद तेजस्वी यादव के गायब रहने, चमकी बुखार पर चुप्पी और लालू प्रसाद को एक मामले में मिली जमानत के बाद यह चर्चा तेज हुई है। इसका फायदा नीतीश कुमार को हो सकता है, अगर वे भाजपा से नाता तोड़ते हैं।

भाजपा से राजद की नजदीकी का मतलब यह नहीं है कि दोनों में तालमेल हो जाएगा। भाजपा यह सुनिश्चित करेगी कि जदयू के अलग होने के बाद राजद और जदयू में पिछली बार की तरह तालमेल न हो। यानी भाजपा, राजद और जदयू तीनों अलग लड़ें। इसमें भाजपा अपना फायदा देख रही है तो नीतीश अपना। इस राजनीति में राजद साफ होगी। उसके पास सिर्फ यादव वोट बचेगा। अगर कांग्रेस और जदयू में तालमेल हुआ तो मुस्लिम, अति पिछड़ा और दलित व सवर्ण का बड़ा हिस्सा इस गठबंधन के साथ जा सकता है।

तभी नीतीश इस प्रयास में लग गए हैं। उन्होंने राजद के एमए फातमी को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया है और रविवार को अब्दुल बारी सिद्दीकी के घर चले गए थे। वे सिद्दीकी को अपने साथ लाना चाहते हैं। उसके बाद उनकी नजर शकील अहमद और तारिक अनवर पर होगी। यह भी अनायास नहीं है कि प्रशांत किशोर भाजपा के दो सहयोगियों- शिव सेना और जदयू दोनों के लिए काम कर रहे हैं और भाजपा की धुर विरोधी ममता बनर्जी के लिए भी काम कर रहे हैं।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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