देश के सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस ने नये सीडीएस विपिन रावत की नियुक्ति को लेकर मोदी सरकार की मंशा पर सवाल उठाया है। लोकसभा में कांग्रेस के नता अधीर रंजन चौधरी ने नियक्ति की वजह वैचारिक झुकाव बताया है। एक अन्य कांग्रेसी नेता ने तो हद ही कर दी कि रक्षा मामलों में खास राजनीतिक झुकाव के चलते निर्णय ना होंए इसका ध्यान रखा जाए। दुनिया में कहीं भी रक्षा के सवाल पर सियासत नहीं होती, लेकिन देश के भीतर विपक्ष ने इसे भी अपना राजनीतिक धर्म मान लिया है। जहां तक नियुक्तियों का सवाल है तो वो मेरिट पर आधारित होना चाहिए ताकि खामख्याली के प्रभाव में सिर्फ इसलिए कि मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान को घेरा जा सके। हर फैसले पर संदेह का वातावरण को तैयार करने की आखिरकार देश की अस्मिता को ही नुकसान पहुंचाती है। संवैधानिक संस्थाएं देश की हैं ना कि किसी पार्टी विशेष की। जो सत्ता में होता है उन्हें फैसले लेने होते हैं। यह प्रजातांत्रिक गणतंत्र की खूबसूरती है। कांग्रेस के आचरण को लेकर इसलिए सवाल उठता है कि लम्बे अर्से तक सत्ता में रही पार्टी से यह उम्मीद नहीं की जा सकती। पर यह दुर्भाग्य ही है कि संस्थाएं निशाने पर हैं। न्यायपालिकाए चुनाव आयोग और यहां तक कि संसद से निकले निर्णय भी कटघरे में किए जाते रहे हैं। इससे कांग्रेस को तो कम से कम बचना चाहिए।
कल सत्ता कांग्रेस के हिस्से में जाने पर उसके फैसलों को लेकर भी इसी तरह संवैधानिक संस्थाएं और सियासी अतिरंजिता से बचा जाना चाहिए। आज कांग्रेस मुख्य भूमिका में है तो विपक्ष के तौर पर उससे यह उम्मीद बेमारी नहीं है। हालांकि वर्ष 2014 से लेकर अब तक एक बात मोटे तौर पर सामने आती रही है। कि मोदी सरकार का एक भी फैसला ऐसा नहीं रहा, जिसे सराहा गया हो। सवाल स्वाभाविक तौर पर उठता है कि यदि सभी फैसले इतने संकीर्ण और किसी खास एजेंडे के तहत लिए गए हैं तो दूसरे कार्यकाल के लिए पहले कार्यकाल से भी ज्यादा सीटें भाजपा को क्यों मिलीं। क्यों अब शीर्ष नेतृत्व को लेकर लोगों का विश्वास डिगा नहीं है। लोकसभा चुनाव में इसी राज्य की जनता ने 51 फीसदी से नवाजा था। विधानसभा चुनाव में भी मत प्रतिशत घटने के बावजूद पार्टी को अन्य दलों की अपेक्षा ज्यादा वोट मिले, यह बात और कि आजसू और अपने अन्य सहयोगियों से छिटकने पर सत्ता गई और सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर मौका भी गया। गैर आदिवासी फैक्टर और तत्कालीन तौर-तरीका भी नतीजों में साफ झलका। यह सही है कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार बड़ी चुनौतियों से चुनौतियों से जूझ रही है। बेरोजगारों की कतार लम्बी हो रही है।
निवेश के लिए सरकार कई तरह के करों में कमी करते हुए औद्योगिक माहौल देने के लिए प्रयत्नशील हैं।खुद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि पिछले कार्यकाल से लेककर अब तक मोदी सरकार ने 50 लाख करोड़ इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए कार्य किये हैं। आगे 100 लाख करोड़ के निवेश का संकल्प है तो सरकार के स्तर पर कोशिश तो दिखती है। वर्तमान में जरूर मंदी की चुनौती से जीडीपी भी लगातार सिकुड़ रही है। आईएमएफ ने भी भारत सरकार को सुझाव दिया है कि मंदी के प्रभाव को कम करने के लिए खर्चे बढ़ाने होंगे। दरअसल राजकोषीय घाटा न बढ़े, इस इरादे से सरकार के अपने खर्चों पर अंकुश लगा रखा है। इसके अलाव ऐसे रास्ते तलाशने की भी जरूरत हैए जिससे लोगों के हाथ में इतना पैसा पहुंचे कि खर्च कर सकें। इसी से बाजार में हलचल होगी और जाहिर है, इसका असर रोजगार पर भी पड़ेगा। इस सबके बीच नागरिकता कानून को लेकर सरकार एक आसन्न मोर्चे पर जूझ रही है। देश के भीतर कहीं न कहीं कानून-व्यवस्था की नई समस्या उत्पन्न हो गई है। ऐसे समय में विपक्ष सिर्फ सियासी मंसूबों को परवान चढ़ाने के लिए देश हित के फैसलों पर सवाल उठाकर जनता के बीच गलत संदेश दे रहा है। यह स्थिति किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए।