राजद्रोह के कानून की आज़ादी के 75 साल बाद क्या कोई जरूरत रह गई है? गुरुवार को यह सवाल भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने मोदी सरकार के एटर्नी जनरल से किया। वैसे, यह मसले का केंद्र बिंदु नहीं हैै। राजद्रोह का कानून इसलिए भयानक नहीं है कि यह हमें ब्रिटिश राज की गुलामी में मिला। समस्या यह है कि इसे बनाने का मकसद औपनिवेशिक था। किसी भी देश के लोग जबरन थोपे गए शासन से नफरत ही करते हैं। इसलिए आपको ऐसे कानून की जरूरत महसूस होती है, जो प्रजा को आपके प्रति वफादार बनाए।
राज्यसत्ता के खिलाफ असंतोष पैदा करने वाले शब्द किसी लोकतंत्र के कानून में नहीं पाए जाने चाहिए। अगर आप अपनी सरकार को नापसंद करते हैं, तो बेशक आप उसकी आलोचना कर सकते हैं, उसे हराकर सत्ता से बाहर कर सकते हैं। यह किसी अधपके लोकतंत्र के लिए भी सामान्य बात है और हम उससे तो बेहतर ही हैं।
हमारा लोकतंत्र इतना समझदार तो है ही कि राष्ट्रहित और सरकार-हित में फर्क कर सके। तानाशाही के मुक़ाबले लोकतंत्र इसलिए ज्यादा मजबूत और लचीला होता है क्योंकि उसके नागरिक सरकार की गलतियों पर उंगली उठा सकते हैं। यह जनमत होता है। क्या आप आलोचकों को खामोश करने के लिए ऐसे कानून का इस्तेमाल कर सकते हैं, जो उन्हें उम्रकैद दे दे और उन पर कलंक चस्पा कर दे?
उत्तर प्रदेश सरकार ने पत्रकारों पर राजद्रोह का मामला सिर्फ इसलिए दायर कर दिया कि उन्होंने खबर दी थी कि किसान आंदोलन का एक कार्यकर्ता पुलिस की गोलीबारी में मारा गया जबकि पोस्ट मार्टम रिपोर्ट बता रही थी कि वह हादसे में मारा गया होगा। उन पर आईपीसी की धारा 505 (बवाल को उकसाना) जैसी धारा लगाई जा सकती थी। हरियाणा में करीब 100 आंदोलनकारी किसानों पर सरकारी वाहनों पर हमला करने के लिए राजद्रोह का मामला दायर हुआ। इसकी जगह उन पर दंगा करने, सरकारी सेवकों की ड्यूटी में बाधा डालने संबंधी सख्त धाराएं क्यों नहीं लगीं?
राजद्रोह कानून, यूएपीए, एनएसए जैसे भयानक कानूनों के मामले में सभी राजनीतिक दलों ने मिलीभगत वाली चुप्पी साध रखी है। कुछ सप्ताह पहले छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी, एडीजीपी जी.पी. सिंह पर अन्य कानूनों के साथ राजद्रोह कानून के तहत मामला दायर कर दिया। दरअसल, राज्य पुलिस को उनके मकान के पीछे ताजा फाड़े गए ऐसे कागजात के टुकड़े मिले थे, जिनसे राज्य सरकार को अस्थिर करने की साजिश का संकेत उभरता था। है न किसी काल्पनिक जासूसी कहानी से उठाया गया प्रसंग?
एक समय महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार ने कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर इसके तहत मामला दायर किया गया था, 2003 में राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार ने विहिप के प्रवीण तोगड़िया के खिलाफ, तो अन्नाद्रमुक ने जयललिता का मज़ाक उड़ाने पर गायक कोवन के खिलाफ मुकदमा दायर किया था। आज भाजपा की सरकारें ट्रैफिक के चालान की तरह देशद्रोह के एफआईआर छाप रही हैं।
यह हमें मुख्य न्यायाधीश के अगले सवाल पर लाता है कि जब इस कानून के तहत सजा देने की दर इतनी कम है तो इस कानून का इस्तेमाल ही क्यों करें? इसकी वजह यह है कि मंशा कानूनी तौर पर सजा देने की नहीं बल्कि कानूनी प्रक्रिया में ‘रगड़ने’ की होती है। क्योंकि किसी एफआईआर कोे रिकॉर्ड से हटाने में अंतहीन समय लगता है।
देश और उसकी सरकार, देशद्रोह और राजद्रोह एक ही चीज नहीं हैं। पक्षपाती सोशल मीडिया और ध्रुवीकरण करने वाले टीवी चैनल इसे और उलझाऊ बना रहे हैं। अंग्रेजों ने 2009 में इस कानून को रद्द कर दिया। लेकिन हम इससे चिपके हुए हैं। दुनिया में कहीं भी निकम्मी सरकार के लिए पहला बहाना होता है, राष्ट्र को खतरा है! यह समझना आसान है कि सरकारें इस कानून को क्यों पसंद करती हैं। यह उन्हें देश का पर्याय बताने में मदद जो करता है! इमरजेंसी के दौरान देवकांत बरुआ ने जो ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ वाला बयान दिया था उसे याद करके आज भी हमें गुस्सा आने लगता है।
लेकिन कुछ प्रगति भी हुई है। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में एटर्नी जनरल ने इस कानून का खुलकर बचाव नहीं किया। उन्होंने यह जरूर कहा कि यह कानून रद्द न किया जाए, बल्कि इसके लिए कुछ निर्देश तय किए जाएं ताकि दुरुपयोग न हो। तथ्य यह है कि सुप्रीम कोर्ट इस धारा की दो बार समीक्षा कर चुका है। 2021 में यह कानून एक घृणास्पद चीज बन चुकी है। इसे जाना ही चाहिए।
यह मुझे करीब 30 साल पहले खैबर दर्रे की ओर जाते हुए पेशावर के एक गांव में हुई बातचीत याद दिलाता है। यह तब की बात है जब भारतीय पत्रकारों को पाकिस्तान के क़बायली इलाकों में जाने की शायद ही मंजूरी दी जाती थी। एक पख्तून दुकानदार ने, जो खुद को ‘कांग्रेसी’ और खान अब्दुल गफ्फार (बादशाह) खान का सिपाही बता रहा था, मुझे और फोटोग्राफर प्रशांत पंजियार को भाषण पिलाया था कि ‘ये क्या बात हुई? मुंह खोलो तो बोलते हैं कि पाकिस्तान टूट जाएगा, इस्लाम टूट जाएगा। क्या शीशे का बना है मेरा पाकिस्तान, मेरा इस्लाम?’ अगली सुनवाई में मुख्य न्यायाधीश महोदय को एटर्नी जनरल से भारत के बारे में ऐसा ही सवाल पूछना चाहिए।
अब खत्म हो यह कानून
किसी निर्वाचित सरकार को जनता से सुरक्षा के लिए कानून की जरूरत क्यों पड़नी चाहिए? यह दुखद सत्य है कि जिन कानूनों को दोनों पक्ष का समर्थन हासिल है वे सबसे बुरे कानून हैं। इसीलिए 74 वर्षों में 14 प्रधानमंत्रियों की सरकारों में से किसी ने राजद्रोह कानूनों को रद्द नहीं किया। 2021 में यह कानून एक घृणास्पद चीज बन चुकी है। इसे जाना ही चाहिए।
शेखर गुप्ता
(लेखक एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ हैं ये उनके निजी विचार हैं)