नागरिकता संशोधन अधिनियम पर उग्र प्रदर्शन के बीच सर्वोच्च न्यायालय ने बुधवार (18 दिसंबर) को रोक लगाने से इंकार कर दिया। अब अदालत इसकी वैधानिकता को परखेगी। गुरुवार (19 दिसंबर) को वामपंथियों ने भारत बंद भी बुलाया। अबतक देश में जारी उग्र बवाल में रेलवे, अन्य सार्वजनिक और निजी संपत्ति को भारी क्षति पहुंची है। आगजनी और पथराव की अनेकों घटनाओं ने तो कश्मीर की पुरानी तस्वीरों को ताजा कर दिया। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, इन हिंसक प्रदर्शनों में असामाजिक तत्वों के साथ इस्लामी चरमपंथी भी शामिल है। यक्ष प्रश्न है कि आखिर भारतीय विरोधी दलों के साथ मुस्लिम समाज का एक हिस्सा संशोधन के बाद एकाएक क्यों भड़का, जो उनके किसी भी संवैधानिक और नागरिक अधिकारों का हनन नहीं करता है?
संशोधन के अनुसार- पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में मजहबी अत्याचारों से प्रताड़ित होकर जो भी वहां का अल्पसंख्यक- हिंदू, सिख, बौद्ध, ईसाई, पारसी और जैन- 31 दिसंबर 2014 तक भारत आए है, उन्हे भारतीय नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार होगा। यह अधिनियम पूर्वोत्तर भारत के उन क्षेत्रों में लागू नहीं होगा, जो “इनर लाइन परमिट” के अंतर्गत आते है और जहां संविधान की छठी अनुसूची लागू है।
मजहबी उत्पीड़न के शिकार उपरोक्त लोगों को यदि भारत आश्रय देता है, तो इससे किसका क्या बिगड़ता है? बेबस हिंदुओं को पनाह देने से भारतीय मुसलमानों या किसी अन्य का अहित कैसे हो सकता है? प्रश्न यह भी उठता है कि यदि भारत में इन तीन इस्लामी देशों के छह समुदायों को भारत में नागरिकता मिल रही है, तो उन देशों के मुसलमानों को क्यों नहीं? इसका सीधा उत्तर यह है कि यह तीनों देश, घोषित रूप से इस्लामी राष्ट्र हैं, इसलिए वहां मजहबी आधार पर मुस्लिम उत्पीड़न की बात हास्यास्पद है।
क्या इन तीनों इस्लामी देशों में अल्पसंख्यकों का मजबही शोषण होता है? विभाजन के समय पाकिस्तान में हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन समुदाय वहां की तत्कालीन कुल आबादी का 15-16 प्रतिशत था, जो 72 वर्ष पश्चात घटकर 1.5-2 प्रतिशत रह गए है। एक आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2002 में पाकिस्तान में सिख जहां 40,000 थे, वह अब घटकर 8,000 से नीचे पहुंच गए है। इसी तरह बांग्लादेश (1971 से पहले पूर्वी पाकिस्तान) में हिंदू और बौद्ध अनुयायियों की संख्या 1947 में वहां की कुल जनसंख्या का 30 प्रतिशत था, वह आज 8 प्रतिशत भी नहीं रह गए है। अफगानिस्तान में 1970 के दशक में अफगानी हिंदुओं और सिखों की संख्या लगभग सात लाख थी, जो 1990 में गृहयुद्ध के बाद निरंतर घटते हुए आज केवल 3000 लोगों तक पहुंच गई है। इन देशों में ‘काफिर’ अल्पसंख्यकों की दयनीय स्थिति का मुख्य कारण यह है कि कालांतर में उन्हे इस्लाम अपनाने के लिए विवश होना पड़ा है और जिस किसी ने इसकी अवहेलना की- उसे मौत के घाट उतार दिया गया। परिणामस्वरूप, इस तरह के मजहबी उत्पीड़न से बचने के लिए वहां के अल्पसंख्यक भारत सहित अन्य देशों में पलायन के लिए मजबूर हुए।
भारत में कश्मीर इसी दंश का सबसे बड़ा मूर्त रूप है। घाटी में 1980-90 के दशक में जिहाद के नग्न-नृत्य ने पांच लाख से अधिक हिंदुओं का शेष भारत में पलायन हेतु विवश कर दिया। विडंबना देखिए, पिछले सात दशकों में जिस प्रकार पाकिस्तान-अफगानिस्तान में हिंदू, सिख, बौद्ध आदि अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा के लिए किसी दोषी को सजा नहीं हुई है, वैसे ही कश्मीर में हिंदुओं के श्रृंखलाबद्ध नरसंहार के लिए आजतक किसी भी जिहादी को सजा नहीं मिली है।
इस पर स्वयंभू सेकुलरिस्टों का पाखंड देखिए कि जो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी गत दिनों दिल्ली में नागरिकता संशोधन विरोधी हिंसक प्रदर्शन में पुलिसिया कार्रवाई के खिलाफ इंडिया गेट स्थित धरने पर बैठीं थी- वह, उनका परिवार या फिर शीर्ष कांग्रेसी नेता सहित कोई भी स्वघोषित सेकुलरिस्ट आजतक कश्मीरी हिंदुओं को न्याय और उनके अपनों की हत्या करने वाले जिहादियों को सजा दिलाने हेतु धरना तो दूर, इस संबंध में आवाज तक नहीं उठाई है। नागरिकता संशोधन अधिनियम विरोधी देशव्यापी प्रदर्शन और उसका उग्र रूप, स्वयंभू सेकुलरिस्ट राजनीतिक दलों के मुस्लिम वोटबैंक हेतु प्रतिस्पर्धा के गर्भ से जनित है। संशोधन अधिनियम के खिलाफ देशभर में प्रदर्शन (हिंसक सहित) करने वालों में अधिकांश प्रदर्शनकारी मुस्लिम समुदाय से है। यह स्थिति तब है, जब संशोधन से भारतीय मुस्लिमों के संवैधानिक अधिकारों में किसी तरह की कटौती नहीं होने वाली है। भारतीय संविधान ने जिस प्रकार अल्पसंख्यकों को कई मामलों में विशेषाधिकार दिया है, उस व्यवस्था में भी इस अधिनियम से कोई परिवर्तन नहीं होने वाला है। यक्ष प्रश्न है कि इस स्थिति में भारतीय मुस्लिम समाज का एक वर्ग एकाएक उग्र क्यों हो गया?
वास्तव में, मुस्लिम समाज के एक वर्ग द्वारा नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ उग्र विरोध पिछले छह वर्षों से व्याप्त नाराजगी के मिश्रण का विस्फोट है। यह समूह “हकदारी की भावना” (sense of entitlement) का शिकार है। इस भावना का जन्म और उसे उग्र रूप देने के लिए लगभग पिछले 100 वर्ष की वह राजनीति जिम्मेदार है, जिसने इस्लामी कट्टरता के सतत पोषण को सेकुलरवाद की संज्ञा दी है। इस विकृति की शुरूआत 1921-24 के कालखंड में तब ही हो गई थी, जब गांधीजी ने मुस्लिमों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने के उद्देश्य से इस्लामी अभियान “खिलाफत आंदोलन” का नेतृत्व किया। 1937 तक मुस्लिम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान को लेकर गंभीर नहीं था, किंतु अगले दस वर्षों में हिंसा, हत्या, बलात्कार और अंग्रेजों व वामपंथियों के कुटिल सहयोग से मुस्लिम समाज देश का विभाजन कर पाकिस्तान लेने में सफल हुआ। कटु सत्य तो यह है कि जितना विरोध स्वघोषित सेकुलरिस्टों ने अयोध्या में राम मंदिर का किया है, यदि उसका चौथाई “पाकिस्तान आंदोलन” के खिलाफ संघर्ष करता, तो संभवत: ना ही भारत खंडित होता और ना ही पाकिस्तान जैसा विषैला राष्ट्र जन्म लेता। 72 वर्ष पहले मिली इस आसान विजय ने भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश मुस्लिमों में व्याप्त अलगाववाद और कट्टरवाद को पहले से अधिक पोषित और मजबूत किया है।
अगस्त 1947 के बाद इस्लामी कट्टरपंथियों के तुष्टिकरण की राजनीति बंद होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उस समय कश्मीर में बहुलतावादी शासकीय व्यवस्था को बाजू में रखकर घोर सांप्रदायिक और कट्टर शेख अब्दुल्ला को घाटी में भेज दिया गया। इसके परिणामस्वरूप, चार दशक पश्चात कश्मीरी पंडितों का घाटी से पलायन हो गया, तो देशभर के मौलवी-मौलानाओं के साथ दिल्ली के शाही इमाम ने इस बात का प्रमाणपत्र देना आरंभ कर दिया कि देश में कौन-सी राजनीतिक पार्टी या नेता सेकुलर है और कौन सांप्रदायिक!
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भी दिल्ली स्थित जामा मस्जिद के शाही इमाम ने मुस्लिम समाज से ‘सेकुलरिस्ट’ कांग्रेस को वोट देने का फतवा जारी किया था। किंतु उस समय कांग्रेस को स्वतंत्र भारत में अपनी सबसे बुरी पराजय का सामना करना पड़ा। फिर इस वर्ष के आम चुनाव में शाही इमाम द्वारा किसी एक दल को समर्थन नहीं देने का फतवा जारी हुआ। मुसलमानों की राष्ट्रव्यापी गोलबंदी के बीच मोदी सरकार की न केवल वापसी हुई, अपितु 2014 से अधिक सीटों और जनाधार के साथ सत्ता में लौटी। यह मुस्लिम ‘वीटो’ के लिए सबसे बड़ा झटका था। अपने दूसरे कार्यकाल के तीन माह के भीतर मोदी सरकार ने उस विकृत अनुच्छेद 370 और धारा 35ए का संसद के माध्यम से संवैधानिक क्षरण कर दिया, जिसे हटाने का वादा 1960 के दशक में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने कई बार संसद में ही किया था, किंतु मुस्लिम ‘वीटो’ रूपी वेंटिलेटर ने उसे दशकों जीवित रखा।
विगत माह कानूनी रूप से 134 वर्षों से लंबित रामजन्मभूमि मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णायक फैसला आया। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि स्वाभाविक न्यायिक प्रकिया राजकीय हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त रहा। इससे पहले तक, कांग्रेस या उसके द्वारा समर्थित केंद्र सरकारों ने न्यायिक मार्ग में अवरोधक बनकर मामले को लटकाए रखने पर विशेष जोर दिया था। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण दिसंबर 2017 में मिल जाता है, जब एक मुस्लिम पक्षाकार की पैरवी करते हुए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने सर्वोच्च न्यायालय की तत्कालीन खंडपीठ से संबंधित सुनवाई को टालने का बार-बार आग्रह किया था।
वैसो तो भारत में मुस्लिम समाज से संबंधित मामले में सर्वोच्च न्यायालय के ‘प्रतिकूल’ निर्णय को पलटने की परंपरा रही है। 1985-86 का शाहबानो मामला इसका मूर्त रूप है, जिसे तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के दवाब में आकर संसद के माध्यम से शीर्ष अदालत का निर्णय पलट दिया था। इसके विपरीत राम मंदिर के निर्माण पर मोदी सरकार अति सक्रिय और गंभीर है। मोदी सरकार में तीन तलाक परंपरा के खिलाफ संसद द्वारा पारित विधेयक, जो अब कानून बन चुका है- उसे कट्टर मुस्लिम वर्ग अब भी अपने अधिकारों में कटौती के रूप में देखते है, जिसे स्वयंभू सेकुलरिस्टों का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन प्राप्त है।
सच तो यह है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध तो केवल बहाना है। मुस्लिम समाज के एक वर्ग के वास्तविक क्रोध के मुख्य कारण- उनके ‘वीटो’ का निष्क्रिय होना, तो उन्हे मिले अधिकारों और शेष भारतीय नागरिकों को प्राप्त अधिकार में आए अंतर का धीरे-धीरे समाप्ति की ओर आगे बढ़ना है। विरोधी दल इसी सांप्रदायिक और विभाजनकारी मनोवृति का दोहन करते हुए अपने-अपने वोटबैंक को पुख्ता करने के प्रयास…
बलबीर पुंज
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं