नक्कारखाने में बौद्धिकों की आवाज

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देश के 49 बौद्धिकों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखी है। पारंपरिक मीडिया में इस चिट्ठी की कम चर्चा हुई है पर सोशल मीडिया में यह चिट्ठी जेरे-बहस है। जैसा कि इन दिनों आमतौर पर होता है, इस चिट्ठी पर चल रही बहस भी एकतरफा है। चिट्ठी लिखने वालों की सात पुश्तों की खबर ली जा रही है। उनके बारे में ऐसी ऐसी बातें बताई जा रही हैं, जो वे खुद भी अपने और अपने खानदान के बारे में नहीं जानते होंगे। इस पूरी बहस का लब्बोलुआब यह है कि ये चिट्ठी लिखने वाले ‘अवार्ड वापसी गैंग’ के सदस्य हैं और इनका तो खानदानी काम ही नरेंद्र मोदी की सरकार का विरोध करना है।

पर क्या सचमुच ऐसा है? क्या चिट्ठी लिखने वालों को ‘अवार्ड वापसी गैंग’ का सदस्य बता कर उनकी चिट्ठी में उठाई गई चिंताओं को खारिज किया जा सकता है? इस चिट्ठी में मॉब लिंचिंग को लेकर चिंता जताई गई है। यह चिंता सिर्फ रामचंद्र गुहा या अनुराग कश्यप या स्वरा भास्कर की नहीं है, सरकार की भी होनी चाहिए। पर सरकार चिंतित नहीं है। बुधवार को सरकार ने संसद में इस बारे में एक बयान दिया। यह अलग बात है कि उसके बयान में इसे एक बड़े खतरे के तौर पर स्वीकार करने और उससे निपटने का भाव नहीं था। सरकार इसमें कोई एक खास ट्रेंड भी नहीं देख पा रही है।

देश के 49 बौद्धिकों की चिट्ठी में दो चिंताएं बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही हैं। पहली चिंता मॉब लिंचिंग यानी भीड़ की हिंसा की है और दूसरी चिंता जय श्री राम के धार्मिक नारे का इस्तेमाल हथियार के तौर पर किए जाने की है। चिट्ठी लिखने वालों की चिंता मूलतः सामाजिक विभाजन और तनाव की है। इनसे पहले देश के जाने माने उद्योगपति आदि गोदरेज ने भी एक चिट्ठी लिखी थी और उन्होंने इसी प्रवृत्ति का जिक्र किया था। पर उनकी चिंता मूलतः आर्थिक थी। उन्होंने कहा था कि मॉब लिंचिंग की घटनाओं का बहुत खराब संदेश दुनिया के देशों में जा रहा है और इससे निवेश प्रभावित हो सकता है।

चाहे इतिहासकार रामचंद्र गुहा हों या उद्योगपति आदि गोदरेज दोनों अपनी-अपनी चिंता में एक खास किस्म के सामाजिक विभाजन, टकराव और तनाव को समझ रहे हैं पर हैरानी की बात है कि सरकार इसे नहीं समझ पा रही है। या समझने के बावजूद इसकी अनदेखी कर रही है। यह अनदेखी बहुत खतरनाक हो सकती है। हो सकता है कि सत्तावान को इसमें अपना राजनीतिक फायदा दिख रहा हो पर वह फायदा क्षणिक है और दीर्घावधि में देश के सामाजिक ताने बाने को बहुत नुकसान पहुंचाने वाला है।

इस मामले में सत्तावान की चुप्पी भी कम खतरनाक नहीं है। वे न तो आदि गोदरेज की चिट्ठी पर कुछ बोलते हैं और न देश के जाने माने बौद्धिकों की चिंता पर चुप्पी तोड़ते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने भी उनको अनेक चिट्ठियां लिखीं पर उन्होंने उनका कभी भी जवाब नहीं दिया। वे ट्विटर पर बहुत सक्रिय हैं और छोटी छोटी बातों पर प्रतिक्रिया देते रहते हैं। पर मॉब लिंचिंग, धार्मिक नारे लगा कर लोगों के साथ मारपीट किए जाने, धार्मिक भावनाओं को आहत करने, भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ रही आवाजों आदि को न तो सुनते हैं और न उन पर प्रतिक्रिया देते हैं।

इन मामलों में उनकी चुप्पी ही उनका हथियार है। वे जानते हैं कि पूरा देश एक नक्कारखाने में बदल दिया गया है, जहां इन बौद्धिकों की आवाज तूती की आवाज से ज्यादा नहीं है। पुराने जमाने में हर शासक के महल में एक नक्कारखाना होता था, जहां जोर जोर से नगाडे बजते थे और मुनादियां होती थीं। दिल्ली का लाल किला घूमने वालों ने नक्कारखाना जरूर देखा होगा। उसके मुख्य लाहौरी गेट से घुसते ही एक खुले मैदान के दूसरे सिरे पर नक्कारखाना है। तूती एक छोटी सी चिड़िया का नाम है, जो बहुत मीठी और महीन आवाज में गाती है और उसे बेहद समझदार माना जाता है। जाहिर है आज मीठी और महीन आवाज में अपनी बात कहने वाले समझदार लोगों की आवाज का इस नक्कारखाने में कोई मतलब नहीं है।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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