अब बजट से उम्मीद

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बजट से एक दिन पहले पेश आर्थिक सर्वे रिपोर्ट ने मंदी से जूझ रही अर्थव्यवस्था में उम्मीद जगाई है। हालांकि असल ब्लू प्रिंट पहली फरवरी को देश के सामने होगा। फिर भी नाउम्मीदी के बीच एक भरोसा जरूर जगा है। सर्वे के मुताबिक अर्थव्यवस्था में जितनी नरमी आनी थी वो आ चुकी, अब विकास की बारी है। यह सच है कि चालू वित्त वर्ष में घरेलू आर्थिक विकास दर एक दशक के निचले स्तर पर आ गई है। बावजूद इस तथ्य के सर्वे की मानें तो चालू वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर 5 फीसदी रहने का अनुमान है। यही नहीं, अगले वित्त वर्ष में यह बढ़कर 6 से 6.5 फीसदी के बीच रहने वाला है। तो शुक्रवार को पेश की गई वित्त वर्ष 2019-20 की आर्थिक समीक्षा ने भरोसे की लकीर तो खींची है पर पेश होने पर बजट से निकले संकेत ही तय करेंगे कि लकीर, लकीर रह जानी है या फिर वाकई गाढ़ी होनी है। यह सवाल इसलिए कि यह जरूरी नहीं कि 65 करोड़ युवा आबादी वाले देश में जब रोजगार एक बड़ी समस्या के रूप में सामने है। बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है। औसतन 6.5 फीसदी से ज्यादा की दर बेरोजगारी के क्षेत्र में है, जिसे साढ़े चार दशक में अब तक का सबसे बड़ा झटका माना जा रहा है, तब कहीं से भरोसा मिले कि अगले 5 साल में 4 करोड़ नौकरियां पैदा होंगी तो इंतजार की कड़वाहट थोड़ी कम हो जाती है।

सरकार मानती है कि असेबल इन इंडिया और मेक इन इंडिया के कार्यक्रमों से दुनिया के निर्यात बाजार में भारत की हिस्सेदारी 2025 तक 3.5 फीसदी हो जाएगी। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि भारत के पास श्रम आधारित निर्यात को बढ़ावा देने के लिए चीन के समान अवसर है। सर्वे में चीन जैसी रणनीति अपनाये जाने पर बल दिया गया है। इसमें जो भारत की तरफ से व्यापार समझौते हुए हैं उसके कुल व्यापार संतुलन पर पडऩे वाले असर को भी समझा गया है। वैसे मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का यह बजट अपने कठिनतम दौर में पेश होने जा रहा है। बीते 6 महीनों के भीतर विकास के सारे संकेतक निराश करने वाले हैं। औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि पर 2 फीसदी के आसपास अटक गई है। लोगों के पास क्रय शक्ति चुकने का नतीजा है कि निजी क्षेत्र में भी नया निवेश नहीं हो रहा है जबकि बीते जुलाई में सरकार ने बजट में कारपोरेट को बढ़ावा देने के इरादे से करों में 5 फीसदी की कमी की थी। ताकि मंदी के दुष्प्रभावों से निपटने में उनकी भूमिका तय हो सके। पर बाजार में छाई मंदी और लोगों की अपने जरूरी खर्चों में कटौती से समस्या गहरा गई है।

हालांकि आर्थिक सुस्ती दूर करने के इरादे से ही सरकार ने आरबीआई से 1.76 लाख करोड़ रुपये लेकर खस्ताहाल बैंकों और अन्य आधारभूत संरचनाओं के विस्तार को ध्यान में रखते हुए खर्च किया। पर स्थिति यह है कि बैंक सस्ते कर्ज इसलिए बांटने में हिचक रहे हैं कि पैसा डूब जाने का खतरा है। कहावत है कि दूध की जली बिल्ली छाछ भी फूं क-फूं क कर पीती है। इतनी सावधानी बरतने का नतीजा है कि ग्रामीण इलाकों में किसानों को भी कर्ज नहीं मिल पा रहा है। इसीलिए कृषि विकास दर भी 1.5 और 2 फीसदी के बीच में झूल रही है। जरूरत है, ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की आय बढ़े ताकि खरीदारी बढ़े, इससे ही बाजार में रौनक लोटेगी। जाहिर है, यह फौरी उपाय है लेकिन इसी आधार पर दीर्घकालिक योजनाओं के नतीजों ककी प्रतीक्षा की जा सकती है। नोटबंदी और जीएसटी के इरादों पर कोई सवाल नहीं लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अब तक इसके दुष्प्रभाव से भारतीय अर्थव्यवस्था उबर नहीं पाई है। यह अच्छी बात है कि देश की पूरी अर्थव्यवस्था औपचारिक हो पर सच्चाई है कि एक जमाने से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की बड़ी भूमिका रही है। बेशक समानांतर अर्थव्यवस्था की प्रत्यक्ष भागीदारी ना हो लेकिन रोजगार के क्षेत्र में उसका व्यापक प्रभाव रहा है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

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