प्रसिद्ध कथकगुरु पंडित अच्छन महाराज (मूल नाम-जगन्नथ प्रसाद मिश्र) अपनी युवावस्था में जैसे-तैसे ऐसी गति से बचे और जान बची तो लाखों पाए जैसे अहसास से गुजरे थे। प्रसंगवश, उनका जन्म 1893 में उनकी ननिहाल में हुआ, जो सुल्तानपुर जिले के लम्भुआ ग्राम में स्थित थी।
अवध के नवाबों को आमतौर पर कलाकारों, कारीगरों शिल्पियों, शायरों वगैरह पर नजर-ए-इनायत के लिए जाना जाता है। जाना जाता है। लेकिन कभी इनमें से कोई, वह अपने फन में कितना भी माहिर क्यों न हो, दो नवाबों की आन या शान के बीच आ जाता तो दो पाटों के बीच वाली गति को प्राप्त हो जाता था। प्रसिद्ध क थक गुरु पंडित अच्छन महाराज (मूल नाम- जगन्नाथ प्रसाद मिश्र) अपनी युवावस्था में जैसे-तैसे ऐसी गति से बचे और जान बची तो लाखों पाए जैसे अहसास से गुजरे थे। प्रसंगवश, उनका जन्म 1893 में उनकी ननिहाल में हुआ, जो सुल्तानपुर जिले के लम्भुआ ग्राम में स्थित थी। अथक संगीत साधना के बूते क थक गुरु बनने तक उनके बारे में एक किंवदंती चल निकली थी। यह कियों तो गणित के दस पये के जोड़-घटाव के सवाल से भी उन्हें पसीना छूटने लगता था। लेकिन नृत्य के बोल, परन, टुकड़े, तिहाई व आमद आदि के प्रश्न वे पलक झपकते हल कर देते थे। इसके चलते उन्हें न सिर्फ अवध बल्कि रामपुर और रायगढ़ के नवाबों का आश्रय भी प्राप्त था।
पं. लच्छू महाराज के एक संस्मण में जिक्र है कि एक बार अच्छन महाराज रामपुर व हैदराबाद के नवाबों की आन के बीच फंसे तो उन पर बहुत बुरी बीती। यह उन दिनों की बात है, जब वे अपने आश्रयदाता लखनऊ के नवाब की आज्ञा से रामपुर के नवाब के दरबार की शोभा बढ़ाने गए हुए थे। एक दिन हैदराबाद के नवाब वहां मेहमान बनकर आए तो उनके साथ उनकी राज नर्तकी भी थी। मेहमान नवाब का दावा था कि उनकी राज नर्तकी की नृत्यकला बेमिसाल है और उसका कहीं कोई तोड़ नहीं है। लेक न बात चली तो रामपुर के नवाब ने उनके दावे से नाइत्तफाक रखते हुए अच्छन महाराज की ओर संकेत कर कह दिया कि ‘कहीं और तोड़ हो या न हो, हमारे यहां है।’मेहमान नवाब ने इसे दिल पर ले लिया तो तय हुआ कि अगले दिन दरबार में राज नर्तकी और अच्छन महाराज का मुकाबला करा लिया जाए। मुकाबले में राज नर्तकी ने वाकई ऐसा समां बांधा कि महिफल वाह-वाह कर उठी।
फिर तो गुमान में भरे मेहमान नवाब अच्छन की ओर देखकर ऐसे मुस्काराए जैसे कह रहे हो, अब आओ और बूता हो तो राज नर्तकी के जोड़ का तोड़ भिड़ाओं। मेजबान नवाब को उनकी यह मुस्कान इतनी अखरी कि उन्होंने अच्छन को बुलाया और चेताया, खबरदार, यह मुकाबला तुम्हे हर हाल में जीतना है। लेकिन जीतने के बाद इस अभिमानी नवाब से कोई टके भर का भी इनाम लिया तो तुम्हारी जान की खोर नहीं। पेड़ से बांधकर गोली मरवा दूंगा तुम्हे। संगीतज्ञ डॉ. विधि नागर ने ‘कथक नृत्य का लखनऊ घराना’ शीर्षक अपनी पुस्तक में लिखा है, ‘बेचारे अच्छन महाराज क्या करते, नाचे तो खूब नाचे। नाचते-नाचते ही फर्शी सलाम बजाते हुए दरबार से बाहर चले गए। लेकिन महफिल को आभास तक नहीं हुआ कि नृत्य समाप्त हो गया है।’ जब तक महफिल चौंकती, उन्होंने पुन: दरबार में आकर सलाम पेश कर दिया। फिर तो मेहमान नवाब ऐसे भावविभोर हुए कि अपना पन्नों का हार गले से उतरा और अच्छन को पहना दियाष
अब अच्छन के एक ओर वह हार था और दूसरी ओर जान की खैर। एक पल की देर भी उन पर भारी पड़ सकती थी। उन्होंने वक्त की नजाकत समझी, हार अपने गले से उतारा और मेहमान नवाब से कहा, हुजूरे आला! आपकी जर्रानवाजी का शुक्रिया। लेकिन इस हार पर असली हक राज नर्तकी का ही है क्योंकि उनका नृत्य वाकई बेजोड़ था। इसलिए मैं इसे एक कलाकार के तौर पर अपनी ओर से उन्हें देना चाहता हूं। कृपया मुझे इसकी इजाजत दे। मेहमान नवाब की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। मेजबान नवाब की भी बात रह गई बाद में उन्होंने अच्छन पर कहीं ज्यादा बेशकीमती भेंटे न्यौछावर कीं। लेकिन उनके दरबार से अच्छन का दिल टूचा तो फिर नहीं जुड़ा। वे लखनऊ लौट आए और तमाम परेशानियों के बीच 29 मई, 1950 को संसार छोड़ गए। उनके पुत्र बिरजू महाजार तब बहुत छोटे थे।
कृष्ण प्रताप सिंह
लेखक स्तंभकार हैं