पेगासस जासूसी कांड निश्चय ही तूल पकड़ रहा है। संसद के दोनों सदनों में दूसरे दिन भी इसे लेकर काफी हंगामा हुआ है। विपक्षी नेता मांग कर रहे हैं कि या तो कोई संयुक्त संसदीय समिति इसकी जांच करे या सर्वोच्च न्यायालय का कोई न्यायाधीश करे। सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश जांच तो करे लेकिन जो रहस्योद्घाटन हुआ है, उससे पता चला है कि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश रंजन गोगोई का नाम भी इस कांड में शामिल है। जिस महिला ने यौन-उत्पीड़न का आरोप उन पर लगाया था, उस महिला और उसके पति के फोनों को भी पेगासस की मदद से टेप किया जाता था। यदि यह घटना-क्रम प्रमाणित हो गया तो भारत सरकार की बड़ी भद्द पिटेगी।
यह माना जाएगा कि गोगोई को बचाने में या उनके कुछ फैसलों का एहसान चुकाने के लिए सरकार ने उनकी करतूत पर पर्दा डालने की कोशिश की थी। इसके अलावा सूचना तकनीक के नए मंत्री अश्विनी वैष्णव का नाम उस सूची में होना इस सरकार के लिए बड़ा धक्का है। आप जिस पर जासूसी कर रहे थे, उसे ही आपने मंत्री बना दिया है और वही व्यक्ति अब उस जासूसी पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहा है। यह अजीब-सी जासूसी है।
उसने या किसी अन्य मंत्री या प्रधानमंत्री ने अभी तक इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा है कि पेगासस का जासूसी यंत्र भारत सरकार ने खरीदा है या नहीं ? लगभग 500 करोड़ रु. का यह जासूसी तंत्र सरकार ने खरीदा हो तो वह साफ़-साफ़ यह कहती क्यों नहीं ? वह यह भी बताए कि पेगासस का इस्तेमाल उसने किन-किन लोगों के विरुद्ध किया है ? उनके नाम न ले किंतु संकेत तो करे। वह यदि आतंकवादियों, दंगाप्रेमियों, तस्करों और विदेशी जासूसों के विरुद्ध इस्तेमाल हुआ है तो उसने ठीक किया है लेकिन यदि वह पत्रकारों, नेताओं, जजों और उद्योगपतियों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया है तो सरकार को उसका कारण बताना चाहिए।
यदि ये लोग राष्ट्रविरोधी हरकतों में संलग्न थे तो इनके विरुद्ध जासूसी करना बिल्कुल गलत नहीं है लेकिन क्या 300 लोग, जिनमें भाजपा के मंत्रियों के नाम भी हैं, क्या वे ऐसे कामों में लिप्त थे ? जो सरकार पत्रकारों पर जाूससी करती है, उसका आशय साफ है। वह उन सूत्रों को खत्म कराना या डराना चाहती है, जो पत्रकारों को खबर देते हैं ताकि लोकतंत्र के चौथे खंभे खबरपालिक को ढहा दिया जाए। यह ठीक है कि जासूसी किए बिना कोई सरकार चल ही नहीं सकती लेकिन जो जासूसी नागरिकों की निजता का उल्लंघन करती हो और जो सत्य को प्रकट होने से रोकती हो, वह अनैतिक तो है ही, वह गैर-कानूनी भी है। जायज जासूसी की प्रक्रिया भी तर्कसम्मत और प्रामाणिक हो तथा संकीर्ण स्वार्थपरक न हो, यह ज़रुरी है।
डा. वेद प्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)