देव भूमि पर कांग्रेस में खींचतान

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देवभूमि में सियासी संघर्ष अनवरत है. ये संघर्ष सुर-असुर वाला नहीं. दो दलों के बीच का भी नहीं. पहाड़ पर असली युद्ध दलों के भीतर का है. भितरघात और अंदरुनी संघर्ष और बगावत दोनों प्रमुख दलों बीजेपी और कांग्रेस का स्थायी चरित्र है उत्तराखंड में. उत्तर प्रदेश से अलग होकर अस्तित्व में आने के साथ ही यहां पर दोनों दलों के भीतर नेतृत्व को लेकर लगातार संघर्ष बना रहा है. अभी सत्ता में बीजेपी है, वहां पर अंदरूनी खींचतान के चलते पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत गए और अब तीरथ सिंह रावत की विदाई कथित संवैधानिक संकट के चलते हो गई. राज की बात में हमने पिछले हफ्ते ही तीरथ के जाने की बात बताई थी.

अब इस हफ्ते राज की बात बीजेपी नहीं बल्कि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की है. कांग्रेस विपक्ष में है तो भी एकजुट होना तो दूर आपस में ही खींचतान मची हुई है. एनडी तिवारी की मृत्यु के बाद से कांग्रेस में निर्विवाद रूप से किसी के नाम पर सहमति नहीं हो सकी. तिवारी का भी विरोध तो होता था, लेकिन उनकी वरिष्ठता और पहाड़ पर उनके कद के सामने सब बौने साबित हो जाते थे. उनके सतत विरोधी हरीश रावत थे जो कि तिवारी की मौत के बाद निसंदेह सबसे वरिष्ठ तो थे, लेकिन उनका मुखर विरोध लगातार रहा. सीएम बनने के बाद भी उन्हें इसी विरोध की कीमत चुकानी पड़ी. वो पार्टी को एकजुट रखने में सफल नहीं हो सके थे, लेकिन आज की तारीख में सच्चाई यही है कि उनके कद का कोई नेता कांग्रेस में नहीं बचा.

उनके मुखर विरोधी माने जाने वाले सतपाल महाराज से लेकर हरक सिंह रावत जैसे नेता अब कांग्रेस का दामन थाम चुके हैं. पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा भी बीजेपी के साथ हैं. खास बात है कि उत्तराखंड का इतिहास अभी तक ऐसा रहा है कि बारी-बारी से दोनों दलों को मौका देती रही है. एक बार बीजेपी तो एक बार कांग्रेस को देवभूमि पर सरकार बनाने का मौका मिलता रहा है. सत्ताधारी दल बीजेपी में सब कुछ ठीक नहीं है. मुख्यमंत्री पद के तमाम दावेदार पहले दिन से रहे. अब दूसरा मुख्यमंत्री भी बदल गया. इसके बावजूद दावेदारों की कमी नहीं है. कांग्रेस से बीजेपी में आए वरिष्ठ नेता भी दावा ठोक रहे हैं.

ऐसे में कांग्रेस को मजबूत होना था. एकजुट होकर सत्ता के लिए संघर्ष करना था. वैसे भी पूराने ट्रैक रिकार्ड के आधार पर कांग्रेस का दावा मजबूत है. मगर सरकार बनने से पहले पार्टी में खुद को सरकार बनाने में कांग्रेस के नेता जुटे हुए हैं. आपस में भिड़े भी हुए हैं. राज की बात यही कि जिस तरह से पंजाब की रार बार-बार दिल्ली दरबार पहुंच रही है. राहुल, प्रियंका और सोनिया से लगातार मुलाकातों का दौर जारी है. वहीं बिना सत्ता में हुए उत्तराखंड की कांग्रेस भी दिल्ली में डेरा जमाए हुए है.

राज की बात है कि कांग्रेस विधायक दल की नेता इंदिरा ह्रदयेश की मौत के बाद शक्ति प्रदर्शन और महत्वाकांक्षाओं का गुबार ज्यादा फैल रहा है. इंदिरा ह्रदयेश के निधन के बाद हरीश रावत जाहिर तौर पर सबसे वरिष्ठ और कद्दावर नेता बचे हैं. राज की बात है कि रावत अपने करीबी गणेश गोदियाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर खुद कैंपेन कमेटी के चेयरमैन के रूप में उत्तराखंड में बिसात पूरी तरह से अपने हाथ में लेना चाहते हैं. केंद्र में महासचिव वह हैं ही और कांग्रेस आलाकमान भी मान रहा है कि रावत को आगे कर ही चुनाव जीता जा सकता है.

रावत की इस घेरेबंदी के खिलाफ उत्तराखंड कांग्रेस के दूसरे नेता सक्रिय हो गए हैं. मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह जो कि अनुसूचित जाति से हैं, वे तुरंत सक्रिय हुए. प्रीतम सिंह को इंदिरा ह्रदयेश की जगह विधायक दल का नेता बनाने की रावत की कोशिशों के खिलाफ वो दिल्ली पहुंच गए. उन्होंने कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी से मुलाकात कर अपना पक्ष भी रखा है. इतना ही नहीं उत्तराखंड कांग्रेस के एक और वरिष्ठ नेता किशोर उपाध्याय भी दिल्ली पहुंच गए हैं. प्रदेश अध्यक्ष के लिए ब्राह्मण चेहरे के तौर पर उनका दावा मजबूत है. इंदिरा ह्रदयेश के बाद ब्राह्मण चेहरे के तौर पर वह निश्चित ही अनुभवी और बड़े नेता हैं.

किशोर और प्रीतम सिंह की प्रियंका से मुलाकात क्या गुल खिलाती है, ये अब वक्त तय करेगा. मगर कांग्रेस उत्तराखंड का सत्ता बदलने का इतिहास इस सिर फुटव्वल के चलते बदले, ऐसा नहीं होने देना चाहती. देखना दिलचस्प है कि इसका समाधान क्या निकलता है.

राजकिशोर
(लेखक एबीपी न्यूज में एक्जीक्यूटिव एडिटर हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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