देर से जागीं ममता

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मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आखिरकार शनिवार को नरम रुख अपनाते हुए डॉक्टरों से काम लौटने की अपील की और साथ ही सारी मांगे मान लेने का भरोसा भी दिलाया। इसके बावजूद कोलकाता के एसआरएस मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर अभी हड़ताल पर हैं। उनकी नजर में हड़ताल के पांच दिन बाद भी राज्य सरकार डॉक्टरों की सुरक्षा और मारपीट करने वालों के खिलाफ ठोस कार्रवाई के लिए इच्छा शक्ति नहीं दिखा पाई है। वैसे देश के बाकी हिस्सों में डॉक्टर काम पर लौट आए हैं। इस बीच केन्द्र सरकार की तरफ से भी हिंसा और हड़ताल के बारे में पश्चिम बंगाल की सरकार से रिपोर्ट मांगी गई है। हालांकि केन्द्र की एडवाइजरी और नोटिस से ममता बनर्जी खिन्न हैं। उन्हें लगता है कि यूपी और गुजरात को केन्द्रीय एडवाइजरी की ज्यादा जरूरत है। जहां तक अस्पतालों में डॉक्टरों से मारपीट का मसला नया नहीं है।

कई बार मरीज की मौत के बाद तीमारदार अपना आपा खो बैठते हैं और एक सच यह भी है कि डॉक्टरों की लापरवाही का मरीज शिकार भी होते हैं। पर आमतौर पर डॉक्टरों पर सभी को भरोसा रहता है। जहां तक मौत का सवाल है तो उस पर किसका जोर, लेकिन तमाम कोशिशें गर बेकार चली जाएं तो डॉक्टर की जान पर बन आती है, यह स्थिति स्वीकार्य नहीं हो सकती। कोलकाता की घटना बस इतनी ही है। एक मरीज की मौत पर उसके डॉक्टर को वेंटिलेटर पर पहुंचा दिया जाता है और प्रतिवाद पर राज्य की मुख्यमंत्री दोषियों पर कार्रवाई का आश्वासन देने की बजाय हड़ताली डॉक्टरों को ही धमकाने लगती हैं। यही नहीं, इस पूरे मामले को सियासी रंग देने की कोशिश होती है। इसका असर अन्य राज्यों के चिकित्सा संस्थानों में दिखने लगता है। केन्द्र के हस्तक्षेप के बाद आखिरकार मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तरफ से पहल तो होती है, लेकिन अडिय़लख बरकार रहता है।

दरअसल 23 मई के नतीजे के बाद न जाने क्यों पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को हर जायज प्रतिवाद में भी राजनीति नजर आने लगती है। शायद सियासी तौर पर उनकी अति सक्रियता ने डॉक्टरों की हड़ताल को राष्ट्रव्यापी मुदृा बना दिया और विपक्ष को बैठे-बिठाए तंज कसने का मौका मिल गया। जिस तरह पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की घटनाएं आए दिन हो रही हैं। उससे इतना तो स्पष्ट है कि भाजपा और टीएमसी के बीच वर्चस्व की जंग विधानसभा चुनाव से पहले थमने वाली नहीं है। खुद ममता बनर्जी का भी यही बताता है। फेडरेल डेमोक्रेसी के नाम पर केन्द्र की भूमिका को नजरंदाज करना किसी के भी हित में नहीं है। नीति आयोग की बैठकों से दूरी, विकास की ढेरों कल्याणकारी योजनाएं केन्द्र से राज्यों में चलाई जाती हैं। यदि इसी तरह संवादहीनता रहे तो असल में प्रभावित जनता होती है। नेता का क्या, उसकी तो बस सियासत चमकती है। सत्ता के लिए संघर्ष करते दिखना अच्छी बात है लेकिन सत्ता में रहते लोगों की भलाई के लिए योजनाओं को सफ लतापूर्वक चलाते हुए दिखना चाहिए।

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