दिल्ली की बात में अब सस्पेंस ज्यादा !

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हिंदू मुस्लिम यदि और हो गया तो भाजपा चुनाव जीत लेगी। पर केजरीवाल ने काम बहुत किए हैं। शाहीनबाग की नौटंकी या आप चाहते हैं जो पूरे देश में फैले। आप ही आएगी वापस। केजरीवाल ने मुत बिजली-पानी दिया, और या चाहिए? केजरीवाल तो टुकड़े-टुकड़े वालों में से हैं। और तुम्हारी दिल्ली में या चल रहा है, किसकी सरकार बनवा रहे हो। यें पांच वाय दिल्लीवालों की इन दिनों की चटर-पटर का लबोलुआब है। यही वह बातचीत,वह संवाद हैं जो इधर- उधर सबसे ज्यादा सुनने को मिल रहे हैं। चाहे पश्चिम दिल्ली की बस्ती और सड़कें हों, या दक्षिण दिल्ली के कैफे, रेस्तरां, हर दिल्ली वाला चुनाव की बात करता मिलेगा। और जो कथित ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’है, उस पर भी खान मार्केट या कनॉट प्लेस के चायवाले हों या कोई और सभी चर्चा करते सुनाई देते मिलेंगे। इतना ही नहीं, जयपुर के लिटफैस्ट (साहित्य महोत्सव) में भी दिल्ली के चुनाव को लेकर बातें होती सुनाई दी। जाहिर है, जब दिल्ली में इतना बड़ा राजनीतिक नाटक चल रहा है और चुनावी भाषणों व संवाद में गालियों के ढोल बज रहे हों तो जयपुर के लिटफैस्ट में कौन तो किताबें पढऩा-देखना चाहेगा या बालीवुड की बात करेगा?वहा भी दिल्ली चुनावों की गहमागहमी में अरविंद केजरीवाल पर कौतुक था। कभी के वार्तालाप और लोगों की जिज्ञासा का केंद्र है दिल्ली में चुनाव।

शुरूआती चर्चा में लोग जहां आम आदमी पार्टी की जीत को लेकर एकदम निश्चिंतता लिए हुए थी, वहीं उसमें अब धीरे-धीरे कुछ कमी आती जा रही है। वहीं भाजपा को लेकर पहले दिन से धारणा है कि उसके पास उपलब्धियों के नाम पर, दिल्ली के नाम पर कुछ नहीं है और जो है वह सिर्फ राष्ट्रवाद है। पर दिल्ली का चुनाव अब दिल्ली तक ही सीमित नहीं रह गया है। अब यह राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक लड़ाई में बदल गया है, ऐसी लड़ाई जो आने वाले वक्त में पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में दोहराई जाएगी और उन राज्यों में भी शायद अपना असर दिखाएगी।फिलहाल दिल्ली का कोना-कोना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पोस्टरों से अटा पड़ा है, और मोदी की मुस्कुराहट लिए इन पोस्टरों में बताया जा रहा है कि उन्होंने दिल्ली वालों के लिए क्या-क्या किया? धारा 370 खत्म की, नागरिक (संशोधित) कानून (सीएए) लाए। इसके बाद देश के गृहमंत्री ने एक बहुत ही कठोर लेकिन नपातुला बयान 26 जनवरी को दे डाला कि साथियों इतनी जोर सेबटन दबाना कि इसका करंट शाहीन बाग में धरना दे रहे लोगों को जाकर लगे और वे उसी शाम वहां से भाग जाएं। अमित शाह की इस दोटूक अपील से मानो बिजली गिरी हो और सब उससे यह सोचते हुए हतप्रभ कि यह या!

चुनावी चर्चाओं की हवा ही बदल गई और केजरीवाल के मुत बिजली-पानी देने, स्कूलों-अस्पतालों की दशा सुधारने जैसे कामकी जो चर्चाए थी, या भविष्य में रोजगार, विकास जैसे जो काम वे करना चाहते हैं, वे सब वादे, बातें, मुद्दे अचानक हिंदू- मुसलमान और राष्ट्रवाद में खोतीहुई लग रही है। निश्चय, गुस्से और हताशा की मिलीजुली दशा के बीच अमित शाह ने उन्माद का जो बह्रास्त्र चला है तो इतना तो कम से कम पक्का माना जा रहा है कि ध्रुवीकरण करने के इन बेतुके तर्कों के बारे में दिल्ली की जनता भी सोचने को मजबूर होगी। पर ऐसा होता हुआ लगता नहीं। झुग्गीझोपड़ बस्तियों और मध्यवर्गीय कॉलोनियों में मूड पुराना ही है। क्यों भी दिल्ली का अपना मिजाज और चरित्र है, जो गर्व की बात है। दिल्ली के लोग बुद्धिमान हैं। दूसरे राज्यों की तरह यहां हिंदू-मुसलमान करके चुनाव नहीं जीता जा सकता। लोग डरपोक नहीं हैं। इसलिए उन्हें हिंदू- मुसलमान के नाम पर बांटना संभव नहीं है। देश की राजधानी होने के नाते यहां कई संस्कृतियों का समागम है तो दिल्ली राजनीति और अफसरशाही का भी गढ़ है। ऐसे में यह सोचना कि दिल्ली आसानी से ध्रुवीकरण की राजनीति का शिकार हो जाएगी, बेकार की बात है। तभी 2020 का दिल्ली का यह चुनाव या रुख ले सकता है या लेगा, यह देखने की बात है।

मिली जुली विचारधाराओं के लोगों वाली दिल्ली क्या राष्ट्र-विरोधियों बनाम देशभक्तों के प्रायोजित नैरेटिव के बहकावे में आएगा? पर जैसी बातचीत और जो दलीलें सुनने को मिल रही है, उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। पिछले कुछ दिनों से तो हिंदू-मुसलमान जैसी बातों ने ही जोर पकड़ा हुआ है। भाजपा जिस तरह का नया माहौल बना रही है, उसके बारे में नौजवान, वृद्ध, पढ़े-लिखे, सभ्य समझे जाने वाले यानी हर तरह के वर्ग के लोग घटनाओं और भाषणो पर गौर जरूर कर रहे हैं। कुल मिलाकर मुसलमान और मुसलमान होने के विचार ने दुनियाभर में एक तरह की नई तरह की जो चिंता पैदा कर दी है, वह स्थायी रूप ले चुकी है तो फिर दिल्ली इसमें पीछे यों रहेगा? तभी बातचीत में यह दलील भी सुनाईआ देती है कि अगर दिल्ली में भाजपा सत्ता में आती है तो उससे नुकसान क्या है, कम से कम मुसलमान दबे तो रहेंगे। उस नाते लगता है कि दिल्ली यह भूलने लगी है कि उसकी जरूरत क्या है, वह क्या चाहती है। आर्थिक रूप से मजबूत होने के बजाय लोगों में यह सोच पहली जरूरत माफिक है कि मुसलमानों से मुक्ति मिले।

और देश क्या चाह रहा है कि इसका मूड दिल्ली में दिखने लगा है। इसलिए यह दिल्ली का पहला ऐसा चुनाव है जिसमें भाजपा और कार्यकर्ताओं की फौज अपने राष्ट्रीय अभियान को यहां पूरी तरह से अंजाम देने में आर-पार की लड़ाई बना रही है।तभी अब खटका है कि कही चुनाव चुपचापआम आदमी पार्टी की मुट्ठी से निकल तो नहीं चुका है? दिल्ली का चुनाव मुकाबले वाला खुला हो गया है और इसीलिए इसके नतीजे चौंकाने वाले भी हो सकते है। अगले कुछ दिनों में जब प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार के लिए उतरेंगे और अमित शाह की तरह ही दहाडेंगे, तो दिल्ली वाले बिना विचारे रह नहीं पाएंगे, मोदी के कहे पर सोचेंगे जरूर। इसलिए दस फरवरी को अगर कुछ अप्रत्याशित नतीजे आते हैं तो हैरानी की बात नहीं होगी। चुनाव में चाहे आप जीते या भाजपा, एक बात तो निश्चित होगी कि इस चुनाव से दिल्ली बदल जाएगी। लोगों के बीच नई दरारें जन्म लेंगी। फिर लोग एक दूसरे से आसानी से खुलकर बात नहीं कर पाएंगे। दिल्ली हिंदू-मुसलमान के नेरेटिव का वह रास्ता बनाएगी, जो आने वाले वक्त में उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में चुनाव में और आगे बढ़ेगा।

श्रुति व्यास
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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