दलों में आंतरिक लोकतंत्र लापता

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कांग्रेस का ‘लेटर बम’, जो ठीक से फटा भी नहीं, उसके परिणामस्वरूप इस पुरानी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की कमी को लेकर काफी चिंता जताई जा रही है। कांग्रेस पार्टी के गांधियों के प्रति जुनून को समझाने के लिए इसे असर ‘परिवार संचालित प्राइवेट लिमिटेड कंपनी’ कहते हैं। इंदिरा गांधी द्वारा कांग्रेस के विभाजन के बाद से 51 साल में केवल सात साल छोड़कर, ‘नई’ कांग्रेस का नियंत्रण नेहरू-गांधी परिवार के हाथ में ही रहा है। एक हद तक वंशवादी पार्टी होने का आरोप सही लगता है। लेकिन, या इसका मतलब यह है कि कांग्रेस अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से कम ‘लोकतांत्रिक’ है? शायद नहीं। भाजपा का ही उदाहरण ले लें। भाजपा ने कब अध्यक्ष पद या प्रधानमंत्री पद का उमीदवार चुनने के लिए खुला चुनाव करवाया? जब 2014 में राजनाथ सिंह का कार्यकाल समाप्त हुआ, तब प्रधानमंत्री के करीबी अमित शाह को सर्वसमति से भाजपा प्रमुख ‘चुना’ गया। फिर 2019 में जेपी नड्डा भी ‘चुने’ गए, इसलिए नहीं कि वे लोकप्रिय थे, बल्कि इसलिए कि वे एक सुशील नेता हैं, जिसका कोई बड़ा जनाधार नहीं है, जो नाव को हिलाएगा नहीं।

यह भी तथ्य है कि 2013 में मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उमीदवार बनाने का फैसला आरएसएस हेडवार्टर, नागपुर के हेडगेवार भवन में लिया गया था। उसके लिए पार्टी में कोई चुनाव नहीं हुआ था। जब लालकृष्ण आडवाणी ने विरोध जताया तो उन्हें मार्गदर्शक मंडल में डाल दिया, जो स्पष्ट संकेत था कि भाजपा में ‘चुने हुए’ को चुनौती देना सहा नहीं जाता। इसके विपरीत, सोनिया गांधी वंशवादी सिद्धांत की स्वाभाविक लाभार्थी हैं, जो राजनीति में आ ही इसलिए पाईं, योंकि वे गांधी परिवार की ‘बहू’ हैं। उन्होंने 1998 में ‘रतहीन आघात’ में सीताराम केसरी की जगह ली थी, फिर भी उन्होंने कम से कम ‘चुनाव’ लडऩे की परंपरा निभाते हुए पार्टी के वरिष्ठ नेता जितेंद्र प्रसाद को हराया था। प्रसाद ने उनके नेतृत्व को चुनौती दी थी, फिर भी उनके बेटे जितिन यूपीए सरकार में मंत्री बने। ‘भूलो और माफ करो’ दृष्टिकोण के कारण ही सोनिया गांधी के विदेशी मूल मामले में चुनौती देकर पार्टी छोडऩे वाले शरद पंवार वास्तव में महाराष्ट्र और केंद्र में मूल्यवान सहयोगी माने गए। और अभी भी सोनिया दावा करती हैं कि उनके मन में चिट्ठी लिखने वालों के प्रति कोई ‘द्वेष’ नहीं है।

तुलना करें तो पाएंगे कि भाजपा में मत विरोधियों की पार्टी में सक्रिय भूमिका कम ही नजर आती है। 1970 के दशक में, जब जनसंघ के कद्दावर नेता बलराज मधोक वाजपेयी- आडवाणी के खिलाफ खड़े हुए तो पार्टी से ही गायब हो गए। जब गोविंदाचार्य ने तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी को ‘मुखौटा’ कहा, तो उनसे पार्टी के सारे पद छीन लिए गए। मसलन या तृणमूल कांग्रेस में कोई ममता बनर्जी के नेतृत्व पर सवाल उठा सकता है? यहां तक कि सामाजिक और राजनीतिक मंथन के बाद बनीं राजनीतिक पार्टियां भी परिवार संचालित एंटरप्राइज बन गईं। जैसे तमिलनाडु में डीएमके। यहां तक कि जन आंदोलन से उभरने का दावा करने वाली ‘आप’ भी अपने ‘सुप्रीम लीडर’ अरविंद केजरीवाल की शख्सियत से पहचानी जाती है। दक्षिणपंथी पार्टियां भी पार्टी में बहस और मुख्य पदों के लिए चुनावों को लेकर प्रतिकूल हैं।

ऐसे में शायद भारतीय संदर्भ में पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की धारणा अतिश्योतिपूर्ण है। भारत में किसी भी विरोध को विभाजनकारी और पार्टी के टूटने का जोखिम माना जाता है। इसकी जगह ‘लोकतांत्रिक सर्वसमति’ की भावना से नेता के आदेश के पालन की स्पष्ट प्रवृत्ति है। शायद हमारी लोकतांत्रिक भावना की सच्ची परीक्षा तब होगी, जब कुछ महीने बाद प्रस्तावित कांग्रेस सेशन में वास्तव में कार्यसमिति और कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव हों। कार्यसमिति की बैठक से पहले ’23 की गैंग’ के एक सदस्य ने मुझसे कहा था कि विवादास्पद चिट्ठी का लक्ष्य गांधी परिवार को निशाना बनाना नहीं था, बल्कि पार्टी का पुनरुत्थान था। उन्होंने मुझसे निवेदन किया, ‘लेकिन यह सब ऑफ रिकॉर्ड है, वरना मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगा।’ जब डर ही बुनियाद हो, या पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को वाकई में अपनाया जा सकता है?

राजदीप सरदेसाई
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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