थालियों में छिपा है भारतीय होने का आनंद

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जुलाई का महीना, बारिश का मौसम। हावड़ा एक्सप्रेस में 48 घंटे की यात्रा के बाद एक नौजवान ने वीटी स्टेशन पर कदम रखा। हाथ में फटा-पुराना सूटकेस, मगर दिल में ऊंचे ख्वाब। कलकत्ते में जन्मे यह शख्स इसके पहले काम की तलाश में कई धक्के खा चुके थे। आखिर 20 रुपए प्रतिमाह की मामूली-सी नौकरी हाथ लगी।

नौजवान का नाम था नेल्सन वांग और इनके माता-पिता कुछ पच्चीस-पचास साल पहले, चीन छोड़कर भारत आ बसे थे। उस जमाने में ज्यादातर चीनी रेस्त्रां चीनी मूल के लोग ही चलाते थे। सो बिरादरी के नौजवान को इस लाइन में नौकरी मिलना थोड़ा आसान था। वैसे उस वक्त उन्हें खाना बनाने का कोई खास ज्ञान था नहीं।

लेकिन रसोईघर में अनेक काम होते हैं। सब्जी काटना, बर्तन धोना, वगैरह। यह सब बावर्ची नहीं, उसका असिस्टेंट करता है। यहीं से नेल्सन ने अपने कॅरिअर की शुरुआत की। मेहनती और स्मार्ट होने की वजह से उन्होंने जल्द रसोई के सारे काम सीख लिए। उस छोटे से रेस्त्रां में एक पहचान बना ली।

अब हुआ यूं कि पास में एक और चीनी रेस्त्रां था, जिसकी हालत खराब थी। उसके मालिक ने नेल्सन का हुनर देखकर उन्हें पार्टनरशिप में काम करने का मौका दिया। वैसे जगह एक कोने में थी, बैठने के लिए टेबल-कुर्सी सिर्फ चार। मगर नेल्सन के हाथ का खाना इतना फेमस हुआ कि टेकअवे के लिए लाइन लगने लगी।

उन ग्राहकों में से एक थे राज सिंह डूंगरपुर, बीसीसीआई के प्रमुख और क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया (सीसीआई) के कर्ताधर्ता। वो खाने से प्रभावित थे ही, आदमी की मेहनत और मिज़ाज से भी। उन्होंने नेल्सन को आमंत्रण दिया कि सीसीआई में चीनी रेस्त्रां खोलो। एक झटके में संघर्ष के बादल छंट गए और मुंबई में नया सितारा चमकने लगा।

नेल्सन वांग की बड़ी खूबी यह थी कि वो अपने ग्राहक की सायकोलॉजी समझते थे। खाने वालों को कुछ ‘नया’ चाहिए, मगर उनकी जीभ है तो भारत की। यह जानते हुए उन्होंने चीनी खाने को देसी स्वाद के अनुकूल बनाया। रसोईघर में कई प्रयोग चलते रहते थे और इसी सिलसिले में एक ऐसी डिश ईजाद हुई, जिसने पूरे देश का दिल जीत लिया।

हुआ यूं कि सीसीआई के मेंबर्स ने मांग की कि हमें कुछ हटके खिलाइए। तो नेल्सन ने चिकन को मैदे में डुबो कर एक ‘पकौड़ा’ तैयार किया। फिर अदरक, लहसुन, मिर्च और सोया सॉस की चटपटी ग्रेवी बनाई। पकौड़े को ग्रेवी में नहलाकर, हरे प्याज के शृंगार के साथ पेश किया। इसका नाम था ‘चिकन मंचूरियन’। यह पकवान न तो देश का था, न विदेश का। मगर दो संस्कृतियों के स्वाद के इस मिश्रण ने धूम मचा दी। कुछ ही दिनों में हर रेस्त्रां के मेन्यु पर ‘मंचूरियन’ स्थापित हो गया। शाकाहारियों के लिए गोभी मंचूरियन प्रस्तुत किया गया।

आज हम अपनी थाली में देखें तो ऐसे अनेक प्रयोग मौजूद हैं। जैसे कि सांभर। मैं समझती थी कि प्राचीन काल से दक्षिण भारत में यह खाया जाता है। हाल ही में पता चला कि यह सिर्फ 300 साल पुराना व्यंजन है। तंजावुर के मराठा शासक शाहूजी की रसोई में जन्मी, चतुर बावर्ची के जुगाड़ की रचना।

बनानी थी मराठियों की प्रिय खट्‌टी-मीठी ‘आमटी’ मगर उस दिन न तो मूंग दाल थी, न कोकम। इसलिए बावर्ची ने तुअर दाल और इमली का उपयोग किया और अतिथि सांभाजी को प्रस्तुत की। शिवाजी के सुपुत्र को यह नए तरह की दाल इतनी पसंद आई कि उसका नाम ‘सांभर’ पड़ गया।

टमाटर, आलू, लाल मिर्च, जिसके बिना ‘इंडियन फूड’ की आज हम कल्पना नहीं कर सकते, वो सिर्फ चार सौ साल पहले पुर्तगाली अपने साथ दक्षिण अमेरिका से लाए थे। कहने का मतलब यह कि भारत एक खोज है। और इसकी झलक हमारे खाने में साफ दिखती है। जो भी इस देश में आया, उसने हमारी थाली में कुछ दिया, कुछ हमसे लिया। इसी मिश्रण से बनी एक अनोखी सभ्यता।
अपने बगल वाले के टिफिन में हाथ डालिए, भारतीय होने का आनंद उठाइए। जय हिंद।

रश्मि बंसल
(लेखिका स्पीकर हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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