तो बंगाल में होती रहेगी हिंसा

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पश्चिम बंगाल में पिछले दो-तीन हफ्ते में आधा दर्जन से ज्यादा लोग राजनीतिक हिंसा में मारे जा चुके हैं। उससे पहले भाजपा का दावा था कि उसके 54 कार्यकर्ता मारे गए हैं, जिनके परिजनों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में बुलाया गया था। ऐसा लग रहा है कि पश्चिम बंगाल में मरने-मारने की राजनीति के बगैर राजनीति नहीं हो सकती है। हिंसा की ताजा घटना बशीरहाट की है, जहां पार्टी का झंडा उतारने को लेकर विवाद हुआ और तीन या पांच लोग मारे गए। भाजपा और तृणमूल कांग्रेस दोनों एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं।

इससे पहले सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस में ऐसा खेल होता था। सीपीएम के 34 साल के राज को खत्म करने के लिए ममता बनर्जी ने जैसी राजनीति की थी, ऐसा लग रहा है कि वैसी ही राजनीति इस समय ममता की पार्टी को खत्म करने के लिए भाजपा कर रही है। ध्यान रहे पश्चिम बंगाल में लेफ्ट का राज एक तरह से पार्टी काडर के जरिए संचालित होता था और प्रशासनिक मशीनरी से ज्यादा पार्टी की मशीनरी प्रभावी होती थी।

ऐसी राजनीति कमोबेश लेफ्ट के शासन वाले बाकी दो राज्यों केरल और त्रिपुरा में भी हुई थी। वहां भी सत्ता परिवर्तन बहुत आसानी से नहीं हो पाया। इस चुनाव में भी सबसे बड़े पैमाने पर हिंसा त्रिपुरा में हुई, जहां सैक़ड़ों की संख्या में मतदान केंद्रों पर दोबारा मतदान कराना पड़ा। जिस तरह भाजपा पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस से लड़ रही है और आए दिन दोनों के कैडर के मारे जाने की खबरें आ रही हैं, वैसा ही संघर्ष केरल में लेफ्ट के साथ भाजपा का चल रहा है। तभी लगता है कि राजनीति का यह हिंसक स्वरूप लेफ्ट की विरासत है।

बहरहाल, लेफ्ट के साथ पश्चिम बंगाल में जो कैडर जुड़ा था, जिसकी कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं थी वह मौका मिलते ही पाला बदल कर तृणमूल के साथ चला गया। और इसके साथ ही प्रदेश में दशकों से चली आ रही हिंसा एकतरफा हो गई। लेफ्ट से आए कैडर और कांग्रेस से आए नेताओं के दम पर ममता बनर्जी ने पूरे बंगाल में कब्जा कर लिया। यह भी बंगाल की ही परिघटना है कि पार्टियां कमजोर होती हैं तो उसके नेता कार्यालय छोड़ कर भाग जाते हैं। अब लेफ्ट का बचा हुआ कैडर और तृणमूल में जिनके हित नहीं पूरे हो रहे हैं वे सारे लोग भाजपा की ओर भाग रहे हैं। तभी लड़ाई का स्वरूप बदल गया है। अब भाजपा बनाम तृणमूल की लड़ाई हो गई है, जिसमें मोमेंटम भाजपा के साथ है, क्योंकि वह नीचे से आ रही है और उसने अपनी लड़ाई में हिंदूत्व का पहलू जोड़ दिया है।

मतलब जैसे ममता लेफ्ट से लड़ी थीं वैसे ही अब भाजपा उनकी पार्टी से लड़ रही है और उन्हीं की रणनीति भाजपा ने भी अपनाई है। भाजपा को केंद्र में अपनी सरकार होने का फायदा मिल रहा है। केंद्र सरकार की सारी एजेंसियों की नजर पश्चिम बंगाल पर है। भाजपा का पारंपरिक कैडर और लेफ्ट व तृणमूल से आए कैडर को भी भरोसा है कि केंद्र में उनकी सरकार है तो वे राज्य सरकार से लड़ रहे हैं। इसलिए उन्होंने लेफ्ट की तरह हथियार नहीं डाला, बल्कि आगे बढ़ कर तृणमूल का जवाब दिया।

सवाल है कि इस सबका आखिर नतीजा क्या होगा? क्या हिंसा की राजनीति का यह चक्र ऐसे ही चलता रहेगा? इसका समाधान यह है कि राज्य में सरकार चलाने वाली पार्टी की मशीनरी कमजोर हो। जब तक पार्टी के नेताओं और कैडर का हित खत्म नहीं होगा तब तक यह चक्र नहीं रूकेगा। जब सारे काम संवैधानिक व्यवस्था के जरिए होने लगेंगे और प्रशासन सहित सारी संस्थाएं स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू करेंगी तभी यह चक्र रूकेगा। अभी तक पार्टी कैडर के हाथ में शासन की कमान रहती है, जिसे वह छोड़ना नहीं चाहता है और इसी वजह से हिंसा होती है। दूसरे, धार्मिक आधार पर तुष्टिकरण भी बंद करना होगा, चाहे वह बहुसंख्यकवाद हो या अल्पसंख्यकवाद, जब तक इसे समाप्त नहीं किया जाएगा तब तक हिंसा नहीं रूकने वाली है।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं

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