सरकारों की संवेदनशीलता मुझ जैसे असंवेदनशील व्यक्ति को भी अपना फैन बना लेती है। कुछ मामले तो ऐसे हैं जिनमें चाहे इनकी सरकार हो वा उनकी, संवेदनशीलता का रस टपाटप टपकता रहता है बल्कि इसमें तो प्रतियोगिता का भाव भी समाहित हो जाता है। ऐसे में कौन उनका दीवाना न होगा भला! यह राग दरबारी है ही ऐसा जिसमें ईष्र्या-द्वेष बीच में टांग नहीं अड़ाते और न ही विरोध की मानसिकता अपना काम कर पाती है। नेता-अफसर रहते हैं मस्त और नियम कायदे हो जाते हैं पस्त! फिर क्यों न हों, जनता मदमस्त और फिरे अलमस्त सी। निश्चित ही अब हमें लगता है कि देश कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक है। ऐसे मामले में तो उन राज्यों में भी अगन को बढ़ाने वाली जलन की तापीय वर्षा होती देखी जा सकती है जिन्होंने अति उत्साह में अपने पैरों पर दरांती मार ली। उनका दर्द हर कोई समझ सकता है, बाहर से आने वाले सैलानी तक समझते हैं, क्योंकि बिना झूमे आज तक कोई रह पाया है! वह भी नहीं जो दिन में नशामुक्ति का पढ़ा हुआ भाषण झाड़ता है, उसके कदम भी मयखाने की ओर ही सरकने लगते हैं, उठने लगते हैं।
बात वही है कि क्या तो सरकार उगलवाए क्या फिर बंदों को छुट्टाछोड़ दो ठीक है अभी कुछ लोग मर गढ़ गए हैं। कहते हैं कि जहरीली शराब पीकर मरे। मरते तो वैसे भी, जल्दी मरे क्या देर से क्योंकि शराब अमृत तो है नहीं जो राहु-केतु बना दें। बात पीनेपिलाने की है तो खबरीलाल की यह खबर सुकून देने वाली है कि मध्यप्रदेश में जिन इलाकों या जिलों में अवैध शराब के केस बाकी जिलों से ज्यादा हैं क्या फिर पांच किलोमीटर के अंतर पर दूसरी शराब की दुकान नहीं है या वह क्षेत्र जो दुकान विहीन हैं, उन जगहों पर उपदुकान खोलने पर शासन स्तर पर विचार शुरू हो गया है। हालांकि वह प्रस्ताव पूर्ववर्ती सरकार के समय में लाया गया था, लेकिन हाय री किस्मत उसके भाग्य में इसकी क्रेडिट नहीं था और बिल्ली के भाग से छीका टूट गया। सरकारों को देश-प्रदेश की अर्थव्यवस्था की चिंता रहती है। स्वाभाविक ही है कि सरकारी खजाना अगर भरा हुआ नहीं होगा तो कल्याणकारी कदम कैसे उठेंगे। फ्री का बिजली-पानी, फ्री का राशन इन दुकानों में प्रवेश करते चहकते-बहकते कदमों की कृपा से संभव हो सकता है।
डा.प्रदीप उपाध्याय