स्टार्टस से लेकर आखिर के मीठे तक सबकुछ, सिर्फ छह सौ रुपये में। साथ में बेटा भी था। यह कहकर ले गया कि पेट के हिसाब से खाना। एक-एक करके डिशेज मेज पर आने लगीं। हम दोनों ने पूरी लखनवी नजाकत से नन करते हुए थोड़ा-थोड़ा लिया। कुछ देर बाद देखा कि मैनेजर, वेटर के साथ आ गया। बोला, सर कुछ स्पेशल खाएंगे या फिर जो कॉम्पलिमेंट्री ड्रिंक है, वह आप और भी ले सकते हैं। पूछा, भाई हम पर इतनी मेहरबान क्यों।
पहले पहले हवस इक, आध दुकां खोलती है
फिर तो बाजार के बाजार से लग जाते हैं
बात में दम है। कुछ दिन पहले का वाकया है। नए खुले एक बढिय़ा रेस्रां में जाना हुआ। स्टार्टर से लेकर आखिर के मीठे तक सबकुछ, सिर्फ छह सौ पये में। साथ में बेटा भी था। यह कहकर ले गया कि पेट के हिसाब से खाना। एक -एक करके डिशेज मेज पर आने लगीं। हम दोनों ने पूरी लखनवी नजाक त से न न क रते हुए थोड़ा-थोड़ा लिया। कुछ देर बाद देखा कि मैनेजर, वेटर के साथ आ गया। बोला, सर कुछ स्पेशल खाएंगे या फि र जो कॉम्पलिमेंट्री ड्रिंक है, वह आप और भी ले सकते हैं। पूछा, भाई हम पर इतनी मेहरबानी क्यों। यह सुनते ही उसने लंबी सांस ली। कहने लगा, क्या बताएं साहब। लोग दोपहर साढ़े बारह बजे से आ जाते हैं।
शायद एक दिन का व्रत रखकर और अगले दिन तक कुछ न खाने का प्लान लेकर। तीन साढ़े तीन बजे हाथ जोड़कर उन्हें विदा करना पड़ता है। पांच-दस प्रतिशत ग्राहक ही आप जैसे होते हैं। बात मेरी समझ में आ गई। यह हाल सिर्फ रेस्त्रां में खाने वाले मध्यमवर्गीय समाज का ही नहीं है। जो जैसा मौका पा रहा है, वह अपने पेट, अपनी औकात और अपनी जरूरत से ज्यादा खाना या समेटना चाह रहा है। पैसा खर्च किया है तो भकोस के खाएंगे। शादी-ब्याह में पांच सौ एक या ग्यारह सौ दिए हैं तो पूरा वसूल करके जाएंगे। अपनी ही सेहत की कोई चिंता नहीं। खा तो लोगे पर पचाओंगे कैसे। एसी टू का टिकर खरीदा है तो शौचालय को पूरी तरह से गंधा के जाएंगे।
पान या मसाला खाने पैसा खर्च किया है तो शहर की सड़क और दीवारें रग डालेंगे। नीचे से ऊपर तक सब जगह ऐसी अफसर के अड्डे से तो कभी किसी नेता के घर से। चुनाव जीतने से पहले वोटरों के हाथ में जो नेग रखे थे। वह सरकारी योजना का फायदा देने में मय सूद समेत पहले ही वसूल चुके हैं। कितने ही गांवों में औरतें चिल्लीती मिल रही हैं कि प्रधान हमारी लैट्रीन खा गया। लैट्रीन खाने से उनका मतलब है कि जो पैसा आया था उसे खा गया। तो जनाब हमारी यह हवस पूरे समाज और तंत्र की आंखों में एक अजीब सा मोतियाबिंद डाल देती है। हम देखकर भी देख नहीं पाते, महसूस नहीं कर पाते। राजनीतिक दलों को ही देख लीजिए।
कैसे चलते हैं इन पार्टियों के खर्चे किसके पैसों से रैलियों के लिए हवाई जहाज और हेलिकॉप्टर उड़ते हैं। कोई भी सियासी पार्टी इस मसले को नहीं उठाना चाहती। चंदा देने वाले वही हैं, जिन्होंने पैसा कमाने में हवस की सारी सीमाएं तोड़ डाली हैं। वे चाहते हैं कि उस सिस्टम में कोई बदलाव न हो जो अमीर को लगातार अमीर और गरीब को ज्यादा गरीब बनाता है। सारे संसाधनों को कुछ लोगों तक सीमित करता है। हम आप से बना समाज यह पूछने की हैसियत इसलिए नहीं रखता, क्योंकि वह खुद तरह-तरह की हवस का आनंद लेना चाहता है। नौकरी पेशा लोगों, कारोबार करने वाले उद्यमियों और हर तरह के वेतनभोगियों से हिसाब लेने की पूरी सरकारी व्यवस्था है।
चार्टेड अकाउन्टेड और सीए फर्म लगातार अमीर हो रही हैं। यह हिसाब राजनीतिक दलों से नहीं पूछा जा सकता। विकास कमाई है भाई। वैसे सही भी है। बिना सेहत की चिंता किए पेट से ऊपर खाने वाले समाज में इतना नैतिक बल भी नहीं होता। जब होगा तब लोग जरूर पूछेंगे। बहरहाल ऐसे हालात बनाने हैं तो अमीर मिनाई के इस शेर को समझना होगा।
सरफरोशी की तमन्ना है तो सर पैदा कर।
तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर।