तालिबान की कच्ची-पक्की खिचड़ी फैज पहुंचे, भारत अभी इंतजार में

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FILE - In this May 28, 2019, file photo, Mullah Abdul Ghani Baradar, the Taliban group's top political leader, second left, arrives with other members of the Taliban delegation for talks in Moscow, Russia. U.S. peace envoy Zalmay Khalilzad held on Saturday, Dec. 7, 2019 the first official talks with Afghanistan's Taliban since last September when President Donald Trump declared a near-certain peace deal with the insurgents dead. (AP Photo/Alexander Zemlianichenko, File)

पहले शुक्रवार और फिर शनिवार को तालिबानी सरकार की विधिवत घोषणा होनी थी लेकिन 20 दिन बाद भी सारा मामला अधर में लटका हुआ है। यह अजूबा है। दुनिया में कहीं भी तख्ता-पलट होता है तो पिछला शासक देश छोड़कर भागता है या मौत के घाट उतारा जाता है, उसके पहले ही नई सरकार की घोषणा हो जाती है। राष्ट्रपति अशरफ गनी को काबुल से भागे अब 20 दिन होने को आ गए लेकिन अभी तक नई सरकार की घोषणा नहीं हुई है। इसका तात्कालिक कारण तो यही है कि काबुल पर तालिबानी फतह अचानक ही हो गई। हालांकि मैंने अपने लेख में हते भर पहले ही लिख दिया था कि हेरात और मजारे-शरीफ जैसे गैर-पठान इलाके इतनी आसानी से गिर गए तो काबुल, कंधार, लश्करगाह और जलालाबाद जैसे क्षेत्र सूखे पत्तें की तरह उड़ जाएंगे। वे उड़ गए लेकिन वे क्या, पूरा देश ही अधर में लटका हुआ है।

उम्मीद यह थी कि तालिबान 31 अगस्त का इंतजार कर रहे हैं ताकि अमेरिका की पूरी वापसी हो और उसके बाद वे अपनी सरकार की घोषणा करें लेकिन अभी भी वे नहीं कर पाए हैं, इसका मूल कारण उनके आंतरिक विवाद है। क्यों तो अपने जन्म के समय 2526 साल पहले तालिबान मूलत: गिलजई पठानों का संगठन था लेकिन अब उसमें लगभग सभी प्रमुख पठान कबीलों के लोग शामिल हो गए हैं। इतना ही नहीं, अब गैर-पठान याने ताजिक, उजबेक, किरगीज, तुर्कमान, मू-ए-सुर्ख और यहां तक कि शिया हजारा भी उनमें शामिल होना चाहते हैं। नई सरकार में हामिद करजई और डॉ. अब्दुल्ला और कुछ पंजशीरी नेताओं के भी किसी न किसी रूप में शिरकत की खबरें हैं।

तालिबान के तीन संगठन-वेटा शूरा, पेशावर शूरा और मिरान्शाह शूरा में भी होड़ लगी हुई है। मुल्ला बिरादर और अंखुंडजई के नाम तो सबसे ऊपर हैं लेकिन तालिबान में जो गरमपंथी और नरमपंथी हैं, उनके बीच भी खींचतान मची हुई है। काबुल में इस समय जबर्दस्त राजनीतिक खिचड़ी पक रही है। तालिबान के पोषक पाकिस्तान के गुप्तचर मुखिया जनरल फैज हामिद भी दल बल सहित काबुल पहुंच चुके हैं। वे भारतपरस्त तत्वों को हतोत्साहित और चीनपरस्त तत्वों को प्रोत्साहित करें तो हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पंजशीर का मामला भी अभी पूरी तरह ठंडा नहीं हुआ है। ऐसे में यदि काबुल में भारत सक्रिय होता तो उसकी भूमिका पाकिस्तान से भी अधिक निष्पक्ष और स्वीकार्य होती लेकिन शायद हमें अमेरिका के इशारे का इंतजार रहता है।

डा. वेद प्रताप वैदिक
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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