तकनीक के दौर में भी अखबार भरोसेमंद

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मीडिया की इन दिनों मरम्मत हो रही है। और यह सिर्फ कला के साथ रहने के बजाय हमारी दैनिक तकनीकी खरीद का हिस्सा भी बन सकती है। मैं ज्यादा से ज्यादा युवाओं और बुजुर्गों को मोबाइल पर अखबार पढ़ते देख रहा हूं। मैंने देखा है कि युवाओं की पूरी पीढ़ी ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों पर फिल्में देख रही हैं।

ड्राइवर और काम वाली हमेशा फोन पर नई रिलीज होने वाली चीजें देखते रहते हैं, जबकि कुछ समय पहले तक वे सिर्फ फोन पर बात करते थे या गाने सुनते थे। क्या लोगों को वाकई थियेटर में फिल्में देखने की याद आ रही है? क्या लोगों को अखबार के अहसास, स्याही की खुशबू की कमी लग रही है? ईमानदारी से कहूं तो मुझे अंदाजा नहीं है।

लेकिन सच कहूं मुझे कमी लगती है। मुझे थियेटर में फिल्में देखने से जुड़ी यादें याद आती हैं। दूसरी तरफ मेरी सुबह अब बेहतर होती हैं क्योंकि दरवाजे पर अखबार आने लगा है। हालांकि इसे मैं ही पढ़ता हूं, बाकी परिवार फोन पर खबरें देखता है। मैं भी कभी-कभी देखता हूं। लेकिन मुझे विज्ञापनों से नफरत है। उन्हें जैसे पता होता है कि मुझे क्या चाहिए। बड़ी कंपनियां सब सुन रही हैं। एआई मेरा अंतरंग मित्र हो गया है। उसे पता है कि मैं क्या चाहता हूं, मुझे क्या पसंद है।

मैंने अखबार पढ़ते हुए जीवन बिताया है, इसलिए टीवी की खबरें देखकर मुझे हंसी आती है। वे न खबरें है, न जानकारीपूर्ण मत। यह अच्छे लोगों के बीच कहासुनी है, जो बुरी राजनीति के लिए खड़े हैं। नतीजा बोरियत भरा होता है। पैसे तय करते हैं कि वे क्या कहेंगे, न कि वह, जिसपर उनका विश्वास है। इसलिए वे मुस्कुराकर भला-बुरा सुन लेते हैं। वहां कोई खबर नहीं देख रहा, किसी को फर्क भी नहीं पड़ता। यह मूर्खों के लिए समय काटने का तरीका है। आप वह चैनल चुनते हैं जो आपके मत का समर्थन करता है।

मैं जरा पुरानी सोच का हूं। प्रिंट मेरे लिए विश्वसनीय है। मैं उसपर इसलिए भी निर्भर हूं क्योंकि टीवी पर आने वाली ज्यादातर खबरें अखबार में नहीं आ पातीं। यह अच्छा संकेत है। मीडिया और मनोरंजन भले एक उद्योग हों, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पाठकों को खबरें मनोरंजन के लिए चाहिए। फिर भी, जो फिल्में और स्ट्रीमिंग शो देखते हैं, उन्हें खबरों पर आधारित चीजें पसंद हैं। इसलिए आजकल कई फिल्में ‘सत्य घटना पर आधारित’ लिखकर से शुरू होती हैं।

सत्य पर आधारित इसलिए क्योंकि पूरा सच नहीं बता सकते। हमारे आसपास पर्याप्त लोग हैं, जो नहीं चाहते कि सच समाने आए। ‘वैधानिक चेतावनी’ लंबी होती जा रही हैं। आजकल शो की जांच के लिए लेखकों से ज्यादा वकील नियुक्त किए जाते हैं। आहत और नाराज होना हमारी सबसे उभरती इंडस्ट्री है।

आपने गौर किया, खबरों की भाषा भी बदल रही है। हेडलाइन में गंभीरता नहीं रही। खबरों को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटा जाता है, ताकि आप धैर्य न खोएं। मीम वाली पीढ़ी किसी के दु:ख या खुशी पर ज्यादा देर नहीं रुकती। मुझे ऐसे स्टार्ट-अप का इंतजार है, जो 15 सेकंड की साउंडबाइट में एक किम की मिसाइल से लेकर दूसरे किम के तलाक तक की खबर दे देगा। बड़े लेख, विस्तृत खोजबीन आधारित खबरें, ऐसी खबरें जिनका पहले सबसे ज्यादा असर होता था, अब गायब हो रहे हैं। इससे मेरे जैसे संपादक परेशानी में पड़ गए हैं।

लंबी खबरों/लेख के गायब होने से शैली गायब हो गई है। खबरें आंकड़ों का पैकेज बनकर रह गई हैं। मुझे याद है कि मैं नए पत्रकारों को मुहम्मद अली की जीत पर लिखी गई नॉर्मन मेलर की खबर ‘द रंबल इन द जंगल’ पढ़ने को कहता था। वह पत्रकारिता में रिपोर्ट लिखने का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है, जिसे जरूर पढ़ना चाहिए। उन्होंने उसे खूबसूरती से लिखा, जबकि उस कार्यक्रम को सिर्फ दो शब्दों में बताया जा सकता था, ‘अली जीते’।

मुझे लगता है कि खबर से परे जाना जरूरी है। पत्रकारिता सिर्फ खबरों के बारे में नहीं है। हां, खबरें इतिहास का पहला मसौदा बनती हैं। लेकिन बहुत कम लोगों को याद रहता है कि खबर किसने दी। आखिरकार हम सभी वेतन-भोगी हैं। लेकिन कभी-कभी, किसी तरह हम अपने साहस के लिए, अपने लेखन में जादू के लिए, खबर करने के अपने जुनून के लिए, सबकुछ जोखिम में डालने के लिए भी याद रखे जाने में सफल हो जाते हैं। यही तकनीक के युग में पत्रकारिता को जिंदा रखे है।

फिल्म निर्माता खुशकिस्मत हैं। लोग अब भी चैपलिन की ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ देखते हैं। या आधी सदी बाद भी सत्यजीत रे की ‘चारुलता’ को याद करते हैं। मुझे याद है कि रॉबर्टो बेनिग्नि की ‘लाइफ इज ब्यूटिफुल’ का मुझपर कितना असर हुआ था। मैं साशा बैरन कोहेन के ‘बोरात’ किरदार की सराहना करता हूं और उनकी फिल्मों को हमारे दौर की राजनीतिक दंतकथाएं मानता हूं। फिल्म निर्माताओं को इतिहास दर्ज नहीं करना पड़ता। वे उसकी विशिष्टता को कैप्चर करते हैं।

वर्षों पहले मैं द टेलीग्राफ के फ्रंट पेज के लिए पॉकेट कार्टून बनाता था। शायद मैं उसपर वापसी करूं। या स्टैंड-अप कॉमिक बन जाऊं। लेकिन आज के भारत में दोनों जोखिम भरे हैं। ऐसा ही फिल्मों और स्ट्रीमिंग शो के साथ है। आज क्रिप्टो की माइनिंग ज्यादा आसान है। या महामारी के बीच अरबपति बनना। हां, हम अजीब वक्त में रह रहे हैं। विश्वनाथन आनंद को चेस में हराने के लिए अरबपति की जरूरत पड़ती है, वह भी चीटिंग करने वाला।

अखबार पहली पसंद
मैं जरा पुरानी सोच का हूं। प्रिंट मेरे लिए विश्वसनीय है। मैं उसपर इसलिए भी निर्भर हूं क्योंकि टीवी पर आने वाली ज्यादातर खबरें अखबार में नहीं आ पातीं। यह अच्छा संकेत है। मीडिया और मनोरंजन भले एक उद्योग हों, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पाठकों को खबरें मनोरंजन के लिए चाहिए।

प्रीतीश नंदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म निर्माता हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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