नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन, कहने को तो भारत सरकार की योजना है, जिसे 2018 में नीति आयोग के प्रस्ताव पर स्वास्थ्य मंत्रालय के एक पैनल ने तैयार किया है और जिसकी घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले से अपने भाषण में की। पर असल में यह योजना बड़ी दवा कंपनियों, बड़े अस्पतालों की चेन चलाने वाले कॉरपोरेट घरानों, टेलीमेडिसीन के क्षेत्र में एक के बाद एक उतरी दर्जनों कंपनियों, बड़े लैब्स और टीकाकरण से जुड़ी कंपनियों के एजेंडे का विस्तार है, जिससे आम लोगों को कोई फायदा नहीं होने वाला है।
स्वास्थ्य मंत्रालय के पैनल ने जो ‘नेशनल डिजिटल हेल्थ ब्लूप्रिंट’ बनाया है उसे ध्यान से देखें तो बार-बार यह पढ़ने को मिलेगा कि देश के लोगों को इससे बडा फायदा होगा। पर असल में कहीं भी यह नहीं बताया गया है कि लोगों को इससे कैसे फायदा होगा। इसके तहत छह डिजिटल सिस्टम बनाने की बात कही गई है। इनके नाम हैं- हेल्थआईडी, डिजिडॉक्टर, हेल्थ फैसिलिटी रजिस्टरी, पर्सनल हेल्थ रिकॉर्ड्स, ई-फार्मेसी और टेलीमेडिसीन। अब जरा सोचें कि यह सब बन जाएगा तो इससे आम लोगों को क्या फायदा होगा और कैसे होगा?
असल में यह पूरा ब्लूप्रिंट आम लोगों का मेडिकल डाटा एक जगह इकट्ठा करने की बात करता है। इसमें कहीं भी स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा सुधारने की बात नहीं कही गई है, डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने या नर्सिंग स्टाफ की संख्या व गुणवत्ता में सुधार की बात नहीं कही गई है, सस्ते इलाज की उपलब्धता का इसमें कोई जिक्र नहीं है, सस्ती और जेनेरिक दवाएं सहज रूप से लोगों को कैसे उपलब्ध होंगी इसका भी इसमें कोई जिक्र नहीं है। जब गांवों, कस्बों में अस्पताल नहीं खुलेंगे, सरकारी अस्पतालों की हालत नहीं ठीक की जाएगी, डॉक्टरों की संख्या नहीं बढ़ाई जाएगी, स्वास्थ्य सेवा पूरी तरह से निजी क्षेत्र के हाथ में सौंप दी जाएगी तो लोगों का हेल्थआईडी कार्ड बनाने से क्या फायदा होगा? क्या कार्ड बन जाने से लोगों को स्वास्थ्य सुविधा मिलने लगेगी? एक कोरोना के संक्रमण ने देश की स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोल कर रख दी है और सरकार उसमें सुधार करने की बजाय हेल्थ आईडी बनवाने में लग गई।
यह असल में आधार कार्ड जैसी ही एक योजना है, जिसमें हर व्यक्ति से उसके स्वास्थ्य से जुड़ी सारी जानकारी ली जाएगी। उसके सारे हेल्थ पैरामीटर इसमें दर्ज होंगे, उसकी लंबाई, वजन, ब्लड प्रेशर, शुगर लेवल, एलर्जी से लेकर उसकी बीमारियों, उसकी अब तक हुई जांच, वह जिन दवाओं का सेवन करता है उसकी सूचना से लेकर उसने किन-किन डॉक्टरों को विजिट किया है, उसने सारे टीके लगवाए हैं या नहीं, उसका स्वास्थ्य बीमा है या नहीं, इसकी जानकारी उसमें रहेगी। अब सरकार सीधे लोगों से यह सूचना कैसे लेती, इसलिए इसमें डिजिडॉक्टर और हेल्थ फैसिलिटी रजिस्टरी की बात भी जोड़ दी गई है। इसके तहत देश के सारे डॉक्टरों का डिजिटल रिकार्ड बनाने और स्वास्थ्य सुविधाओं यानी अस्पताल आदि की सूचना देने की बात शामिल की गई है। इसका मकसद लोगों को इस भ्रम में रखना है कि सरकार यह काम उनके लिए कर रही है।
इसे एक बड़ी बात के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है कि सारे डॉक्टरों की डिजिटल जानकारी उपलब्ध होगी। इससे भला लोगों का क्या फायदा होगा? हर छोटे-बडे अस्पताल के डॉक्टरों के नाम अब भी ऑनलाइन उपलब्ध हैं और उनकी हजारों रुपए की फीस कैसे ऑनलाइन भरें यह भी जानकारी उपलब्ध है। प्रैक्टो डॉटकॉम पर जाकर कोई भी आदमी किसी भी बीमारी के लिए अपने आसपास डॉक्टर तलाश सकता है और उसकी फीस भर कर अप्वाइंटमेंट ले सकता है। इसके लिए डिजिडॉक्टर या हेल्थ फैसिलिटी रजिस्टरी की क्या जरूरत है? ध्यान रहे डॉक्टरों का डिजिटल डाटा बनने से आम आदमी को कोई फायदा नहीं होगा, आखिर देश के सारे रेस्तरां के मेनू डिजिटल फॉर्मेट में ऑनलाइन उपलब्ध हैं तो क्या उससे हर भूखे आदमी को खाना मिल जाता है? डॉक्टर की डिजिटल जानकारी आम आदमी के किसी काम नहीं आएगी, परंतु हर आदमी का हेल्थ डाटा ऑनलाइन हो जाने से अस्पतालों, दवा बेचने वालों और लैब्स चलाने वालों को बहुत फायदा होगा।
असल में पिछले कुछ समय से देश में निजी हेल्थ सेक्टर बहुत मजबूत हुआ है और उसी अनुपात में सरकारी सेवाओं की स्थिति बिगड़ी है। तभी पूरे देश में बड़ी फार्मा कंपनियां, मेडिकल केयर की कंपनियां, लैब्स और टेलीमेडिसीन की कंपनियां विलय और अधिग्रहण के जरिए स्वास्थ्य सेवाओं को संगठित कर रही हैं। पूरे देश में एक या दो कंपनी के पैथलैब्स खुल रहे हैं, दो-तीन मेडिकल केयर की बड़ी कंपनियां हर छोटे शहर में अपने अस्पताल खोल रही हैं या पहले से चल रहे अस्पतालों का अधिग्रहण कर रही हैं, टेलीमेडिसीन की कंपनियां आक्रामक प्रचार के जरिए पूरे देश में फैल रही हैं और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर दवाएं मिलने लगी हैं। हालांकि इन सबके बावजूद अभी भारत का हेल्थ सेक्टर काफी बिखरा हुआ है। नेशनल डिजिटिल हेल्थ मिशन का मकसद इस बिखरे हुए सेक्टर को ऑर्गेनाइज करके बड़े कॉरपोरेट घरानों के हाथ में सौंप देना है।
सरकार अभी कह रही है कि यह स्वैच्छिक है, पर ज्यादा समय तक यह स्वैच्छिक नहीं रहने वाला है। इसे आधार की तरह अनिवार्य किया जाएगा। सरकार कह रही है कि आधार से अलग इसके लिए एक संघीय ढांचा बनाया जाएगा, जिसमें हर व्यक्ति का डाटा अलग अस्पताल के सर्वर में होगा और व्यक्ति की मंजूरी के बाद ही डाटा शेयर किया जा सकेगा। पर इस बात पर शायद ही कोई यकीन करेगा कि भारत में उसका डाटा सुरक्षित रहेगा और उसकी मर्जी के बिना उसे शेयर नहीं किया जाएगा। यहां पांच-पांच, दस-दस रुपए में लोगों के आधार का डाटा बिकने की खबरें आई हैं तो अस्पतालों में रखा हेल्थ का डाटा बाजार में बिकने लगना कोई बड़ी बात नहीं है। सो, देश के लोगों, एक बार फिर कॉरपोरेट के फायदे के लिए कतार में लगने के लिए तैयार हो जाएं. इस बार आपके कथित फायदे के लिए सरकार एक नए कार्ड की स्कीम ले आई है। यह कार्ड देशी-विदेशी बीमा कंपनियों, जियो के डिजिटल प्लेटफॉर्म और यूनिवर्सल वैक्सीनेशन की बिल गेट्स की योजना को कैसे आगे बढ़ाएगी, इसके बारे में कल विचार करेंगे।
अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)