एक के बाद एक खुलासे हो रहे हैं। टीआरपी की होड़ में परदे के पीछे भी कुछ-कुछ होता है, दर्शकों को यह पता चल रहा है। पर जो भी हो रहा है, वह ठीक नहीं है। अपने प्रॉडक्ट की क्वालिटी के आधार पर कोई खिलाड़ी विजेता बने तो बात समझ में आती है, लेकिन विजेता बनने के लिए कोई खेल के नियम ही बदल दे तो यह समझ से परे है। जब टॉप के खबरिया चैनलों पर आरोप लगने लगें तो अंदाज लगाया जा सकता है कि छोटे-छोटे चैनलों की बिसात ही क्या है।
समाचार चैनल ही नहीं, मनोरंजन चैनलों का भी टीआरपी के लिए गोरखधंधा शर्मनाक है। यह उजागर है कि विज्ञापनों के लिए ही इस रेटिंग की चिंता की जाती है। बाजार में इस गलाकाट स्पर्धा के कारण सारे नैतिक मूल्य धरे रह जाते हैं और उनकी जगह नकली मापदंड आ जाते हैं। यह स्थिति बाजार के लिए घातक है और उपभोक्ता के लिए भी। विडंबना यह है कि पैसे के लिए ये अनैतिक हथकंडे गांव का कोई अनपढ़ दुकानदार अपनाए तो बात समझ में आती है, पर बौद्घिक व्यापार इसका शिकार हो जाए,यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
मुझे याद है, जब भारत का चैनल उद्योग पनप रहा था तो केबल संचालकों को चैनल के मार्केटिंग कार्यकर्ता अपने डिब्बे दिया करते थे। साथ में बेहतर स्थान देने की एवज में महंगे उपहार भी उन्हें भेंट किए जाते थे। कोई ऑपरेटर तो ऐसा भी होता था जो उपहार न लेकर हर साल कैश की मांग करता था। चैनल उन्हें नकद भी देता था। इसके अलावा समय-समय पर उन्हें पांच सितारा होटलों में दावत दी जाती थी। उन रात्रिभोजों में महंगी और उम्दा शराब परोसी जाती थी। यह करीब बीस बरस पहले की बात है। तब भी यह अनुचित था और आज भी इसे ठीक नहीं माना जाता। आशय यह है कि मुनाफे के लिए बेईमानी के बीज तो इस चैनल उद्योग की स्थापना के साथ ही पड़ गए थे। मगर हालत यहां तक जा पहुंचेगी, किसी ने नहीं सोचा था।
जब तक टीआरपी के परदे के पीछे की माया सामने नहीं आई थी, तब तक बहुत चिंता नहीं थी। मगर पैसों के लेन-देन का ख़ुलासा होने के बाद समाज के बुद्धिजीवी विचलित हैं। वे अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहे हैं। सोच के किसी बिंदु पर वे अगर भ्रमित महसूस करते थे तो टीआरपी के पैमाने पर सबसे लोकप्रिय चैनल को देखते थे और उसकी बात मान लेते थे। वे सोचते थे कि चैनल जो दिखा रहा है, वह समाज की प्रतिनिधि राय हो सकती है, क्योंकि अधिकतर लोग इसी चैनल को देखते हैं। पर अब उन्हें लग रहा है कि वे ऐसे अनेक बौद्धिक विमर्शों में अनजाने में ही अपनी राय बना बैठे हैं, जो सच नहीं हो सकती।
यानी चैनल ने राजनीतिक अथवा सामाजिक या अन्य आधारों पर अपनी बात बड़ी सफाई से उनके दिमागों में दाखिल कर दी है। उस तथाकथित सच जानकारी के आधार पर वे अपने-अपने संपर्क संसार में उस विकृत सच का विस्तार कर चुके हैं। अपने साथ हुई इस वैचारिक धोखाधड़ी का मामला वे किस थाने या अदालत में लेकर जाएं। अब वे सावधान हैं। वे छोटे परदे के मायाजाल में नहीं फंसेंगे, यह उन्होंने तय कर लिया है और यह खतरे की घंटी है मिस्टर मीडिया!
राजेश बादल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)