जिन्दगी पहले, आजादी बाद में

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कश्मीर की आज़ादी और कश्मीरियों की व्यक्तिगत आज़ादी दोनों अलग अलग बातें हैं। कश्मीर के मौजूदा हालात में कश्मीरियों की व्यक्तिगत आज़ादी एक मसला बना हुआ है। अपन जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक दिलबाग सिंह के इस जुमले से सहमत नहीं हैं कि आज़ादी से ज्यादा महत्वपूर्ण जिंदगी है। व्यक्तिगत आज़ादी के बारे में जनता क्या सोचती है, उसका एक उदाहरण आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव के नतीजे हैं। आपातकाल में लोगों की व्यक्तिगत आज़ादी का हनन करने वाली इंदिरा गांधी को करारी हार का मुहं देखना पड़ा था।

जब से केंद्र सरकार ने कश्मीर को विशेषाधिकारों से वंचित किया है वहां आपातकाल जैसी स्थिति है। मोबाइल फोन और इंटरनेट बंद हैं जिस की आलोचना बढ़ रही है। दिलबाग सिंह ने एक इंटरव्यू में कहा है कि जम्मू कश्मीर में पाबंदियां लगाना ही एक मात्र विकल्प था। भले ही यह बहुत कठोर लगता हो , लेकिन क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए उपयोगी है।

यहाँ तक उन की बात से सहमत हुआ जा सकता है , लेकिन उन के इस जुमले से हर कोई सहमत नहीं होगा कि आज़ादी से महत्वपूर्ण जिंदगी है। इस में कोई शक नहीं कि 370 और 35 ए विशेषाधिकार वापस लिए जाने के खिलाफ कश्मीर में आक्रोश है और वह विद्रोह की हद तक है , यही कारण है कि कोई पाबंदी न होने के बावजूद बाज़ार नहीं खुल रहे हैं। बाज़ार नहीं खुलने के दो कारण हो सकते हैं। एक कारण तो यह हो सकता है कि आतंकवादियों ने दुकानदारों को धमकी दे रखी हो और दूसरा कारण स्वय स्फूर्त हडताल हो सकता है।

दोनों ही कारण संभव हैं। जो लोग अपनी दुकाने खोलना भी चाहते हैं , वे आतंकवादियों से डर के मारे नहीं खोल रहे। पम्पोर में 65 वर्षीय एक दुकानदार को आतंकवादियों ने दूकान खोलने पर गोली मार दी , इस घटना के बाद कोई दूकान खोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा। दुकानदारों को बाज़ारों और उन के घरों में सुरक्षा देने की बजाए डीजीपी दिलबाग सिंह ने कहा कि वह लोगों दुकाने खोलने के लिए मजबूर नहीं कर सकते, यह उन का धंधा है, उन की मर्जी है।

दिलबाग सिंह का यह बयान कितना गैर-जिम्मेदाराना है अपनी शुरू से ही धारणा रही है कि जम्मू कश्मीर पुलिस आतंकवाद को हतोत्साहित करने की बजाए उन के मकसद में मददगार बनती है। जहां भारत सरकार की कोशिश जम्मू कश्मीर के हालात सामान्य बताने की है , गृह मंत्री अमित शाह बार बार यही दावा कर रहे हैं , वहीं पाकिस्तान परस्तों की कोशिश दुनिया को यह दिखाने की है कि पूरी घाटी 35 दिन से भारत सरकार के खिलाफ बंद है।

घाटी में चल रहा बंद इस धारणा की पुष्टि करता है कि जम्मू कश्मीर पर भारत सरकार का सामान्य स्थिति का दावा सत्य नहीं है। इसीलिए मोबाईल और इंटरनेट नहीं खोले जा रहे। एक-आध बार खोलने की कोशिश भी हुई तो तुरंत फिर से बंद करने पड़े , लेकिन मौजूदा स्थिति कब तक बनाए रखी जा सकती है? इस स्थिति का राष्ट्र विरोधी तत्व अफवाहें फैलाने में इस्तेमाल कर रहे हैं। टुकड़े टुकड़े गैंग की मेंबर के तौर पर मशहूर हुई जेएनयू की पूर्व छात्रा और माकपा की मौजूदा लीडर शाहला रशीद के दस ट्विट इस का उदाहरण है जिस में उन्होंने कश्मीरी युवकों को टार्चर किए जाने के आरोप लगाए थे।

सेना ने उन आरोपों को गलत ठहराया है और शाहला रशीद के खिलाफ ऍफ़आईआर दर्ज की जा चुकी है। शाहला रशीद ने भले ही सुनी सुनाई बातों के आधार पर या मनघडंत आरोप लगाए हों लेकिन विदेशी मीडिया घाटी में पनपे आक्रोश की ख़बरें दे रहा है पत्थर मार कर ट्रक चालक की हत्या तो इस का प्रमाण है कि पत्थरबाजी की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है। खुद दिलबाग सिंह ने माना है कि 5 अगस्त के बाद पत्थरबाजी में पकड़े गए 300 युवकों को दस दस लोगों की जमानत पर छोड़ा गया है। जब पाबंदियों के बावजूद 35 दिनों में यह हाल है तो पाबंदियां हटने के बाद क्या होगा।

अजय सेतिया
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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