जनता को क्या मिलने वाला है..!

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जो पाठ मोदी एंड कंपनी कांग्रेस के 70 बरस के नाम पर कर रही है और अपने पांच बरस छुपा रही है जो मंत्र इंदिरा के गरीबी हटाओ के नारे को जप कर बीजेपी अपने सच को छुपा रही है यह संकेत है कि लोकतंत्र इतिहास दोहराने को तैयार है। यकीन मानिये भरोसा कांग्रेस पर से भी टूटा और इदिरा से भी टूटा है और भरोसा मोदी से भी टूटेगा। लेकिन इतिहास के पन्नों को पलटने से पहले सोचना शुरू कीजिये ऐसे जनतंत्र पर किसका भरोसा बचेगा जो सत्ता पाने के लिये आम वोटरों की त्रासदी को खेल बनाता हो।

इंदिरा का नारा गरीबी हटाओ। 1971 का चुनाव और इसी नारे के सहारे शोषित और उपेक्षित समाज की भावनाओं को उभारा गया। भाषण हो। पोस्टर हो। वादे हो। सबकुछ गरीबी हटाओ पर टिका। सत्ता मिली और जीत के तुरंत बाद पूंजीपतियों के संगठन में इंदिरा ने जो भाषण दिये वह उन नीतियों के ठीक उलट था जो गरीबी हटाओ के इर्द गिर्द ताना बाना बुने हुये था। और तब पहली बार चन्द्रशेखर ने ही सवाल उठाया कि अगर सरकार वादे पूरे नहीं करती या फिर चुनावी नारों के जरीये लोगों की भवनाओं से खिलवाड़ करती है तो फिर जनतंत्र से लोगों का भरोसा उठ जायेगा। ये बात चन्द्रशेखर ने यंग इंडिया के संपादकीय में लिखी थी।

लेकिन अब सोचना शुरू कीजिये कि इंदिरा का तो एक ही नारा था और आने वाले वक्त में मोदी को कैसे लोग याद करेंगे…या फिर याद करने की नौबत ही नहीं आयेगी क्योंकि 2014 में गरीब गुरबों की भावनाओं से जुड़े नारों की भरमारे बाद सत्ता पाते ही जिस तरह मुकेश अंबानी के अस्पताल में प्रधानमंत्री मोदी अंबानी हो गये और उसके बाद लगातार देश में जिस तरह नीरव को मोदी होने पर गर्व होने लगा। चौकसी को मोदी के याराने पर गर्व होने लगा। कारपोरेट का खुला खेल चंद हथेलियों पर रेंगने लगा उसमें 2019 का चुनाव भरोसा जगाने वाला चुनाव है या टूट चुके भरोसे में भी जनतंत्र की मातमपुर्सी करते विपक्ष की रुदन वाला चुनाव है या फिर चुनाव सिर्फ एवीएम मशीन और पूंजी के पहाड़ तले अपराध-भ्रष्टाचार की चादर ओढ़ कर सिर्फ वोटों की गिनती तक के जुनून को पालने वाला है।

कोई पैलेटिकल नैरेटिव जो बताता हो मई 2019 के बाद देश किस रास्ते जायेगा। कोई विजन जो समझा दे कि कैसे युवा हिन्दुस्तान सड़क पर नहीं कल कारखानों या यूनिवर्सिटी या खेत खलिहानों में नजर आयेगा। कोई समझ जो बता दे मंडल- कमंडल और आर्थिक सुधार की उम्र पूरी होने के बाद भारतीय राजनीति को अब क्या चाहिये या फिर राष्ट्रवाद या देशभक्ति तले सीमा पर जवानों की शहादत और देश के भीतर रायसिना हिल्स पर रौंदे जाते संविधान को ही मुद्दा बनाकर लोकतंत्र का नायाब पाठ याद करने का ही वक्त है। तो क्या लोकतंत्र-जंनतत्र अब सिर्फ शब्द भर है और इन शब्दों को परिभाषित करने की दिशा में देश की समूची पूंजी जा लगी है। और जो सत्ता के नये परिभाषा को याद कर बोलेगा नहीं वह कभी लिचिंग में।

कभी लाइन में। कभी गौ वध के गुनहगार के तौर पर तो कभी भीड़ तले कुचल दिया जायेगा और कानून का राज सिर्फ यही संभालने में लग जायेगा कि कोई हत्यारा कहीं अपराधी ना करार दिया जाये। जब सबकुछ आंखों के सामने है तो फिर सोचना शुरू कीजिए एक सौ तीस करोड़ के देश में। नब्बे करोड़ वोटरों के बीच। 29 राज्य और सात केन्द्र शासित राज्यों के बीच। देश के सामने 15 ऐसे नाम भी नहीं जो लोकतंत्र की तस्वीर लिये फिरते हों। मोदी-शाह, राहुल-प्रियंका, मायावती-अखिलेश, नीतिश-लालू, ममता-चन्द्रबाबू , नवीन-स्टालिन, उद्धव-बादल और उसके बाद सांस फूलने लगेगी कि कौन सा नाम लें जो 2019 के चुनाव में अपनी सीट से इतर प्रभाव पैदा करने वाला है।

या फिर लोकतंत्र को जिन्दा रख जनता को मौका दे दे कि जनतंत्र से भरोसा टूटना नहीं चाहिये। इस लोकतंत्र के हालात ठीक वैसे ही हैं जैसे बरसात में भींग चुके माचिस बेचने वाले के होते हैं। माचिस जला कर खुद में आग की तपन पैदा नहीं करेगा तो मौत हो जायेगी और तपन पैदा कर लेगा तो फिर भूख मिटाने के लिये माचिस बेच कर दो पैसे कमाने की स्थिति भी नहीं बचेगी। तो क्या 2019 का चुनाव वाकई मोदी-राहुल। या सत्ता-विपक्ष के बीच का है या फिर जनता और वोटर के बीच 2019 का जनादेश आकर उलझ गया है। जहां मोदी चुनाव हार चुके हैं और राहुल चुनाव जीत नहीं सकते।

लेकिन हार – जीत जनता और वोटरों की ही होनी है। वोटिंग का दिन। घंटे भर की कतार। फिर दो मिनट में एवीएम का बटन। और 19 मई तक हर वोटर जीत जायेगा। और 23 मई को जनता हार जायेगी। कल्पना कीजिये या ना कीजिये लेकिन सोचिये आखिर 23 मई के बाद जनता को क्या मिलने वाला है और जनता अगर 11 अप्रैल से 19 मई के बीच वाकई जाग गई और खुद ही जनतंत्र का राह तय करने निकलने लगी तो फिर 23 मई को लोकतंत्र को बंधक बनाये चेहरों का नहीं जनता का जश्न होगा। पर भरोसा तो टूट चुका है। तो फिर मान लीजिये ये सपने में लिखा गया आलेख है। और अब सपना टूट गया।

पुण्य प्रसून वाजपेयी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह उनका निजी विचार है

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