चमकी पर न पाई पार, लीची पर रार

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बिहार में चमकी बुखार दस साल के बच्चों को अपनी काल में समा रहा है। बुखार भी ऐसा है कि उन पर दवाईयों का असर नहीं हो रहा है। अधिकांश सरकारी अस्पताल बीमार बच्चों से भरे पड़े हुए हैं। एक बेड पर दो से अधिक बच्चों को भर्ती कर ईलाज किया जा रहा है। परंतु ऐसे बीमार बच्चों पर दवाईयां भी असर नहीं कर रही हैं। आंकड़ों के मुताबिक बुखार से मरने वालों बच्चों की संख्या सैंकड़ों से ऊपर पहुंच चुकी है। यह बात देखने वाली है कि इनमें 80 प्रतिशत बच्चियां हैं। वैसे तो हमारे रहनुमा यह कहते हुए नहीं थकते कि इक्कसवीं सदी हमारी होगी परंतु जब देश पर कोई संकट आ जाता है तो खाली हाथ दिख जाते हैं। नागरिकों की सुविधा के नाम पर सरकारी मशीनरी जीरो साबित ही दिखती है। या हम कह सकते हैं कि ज्यादा देर हो चुकी होती है। आज जब बिहार के साथ-साथ आसपास के राज्यों में चमकी बुखार छोटे-छोटे बच्चों को अपने आगोश में ले रहा है। ऐसे समय में ठीक स्वास्थ्य सेवाएं मिलनी चाहिएं परंतु सुविधा के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति ही दिखाई देती है अब तक जैसे होता आया वही ढाक के तीन पात।

एक बात बहुत गौर करने वाली यह है कि वहां की स्वास्थ्य सेवाओं बीमार बच्चों का सैंपल ले रहा है या नहीं ले रहा जिससे इस बात का पता लगाया जा सके कि आखिर चमकी बुखार कैसे पनपा या चमकी बुखार का ऐसा कौन संक्रमण है जो बुखार होने पर छोटे-छोटे बच्चों को मौत के अकाल में झोंक रहा है। वहां की स्वास्थ्य सेवाएं प्रकृति प्रदत्त लिची फल कब धरती पर आया इसमें क्या अवगुण हैं इसे खाने से व्यक्ति को क्या नुकसान हो सकता है या फिर हम यह कह सकते हैं सारा सरकारी अमल लिची की खोज में लग गया है। जबकि होना यह चाहिए था कि चमकी बुखार कौन से संक्रमण या वायरस के कारण फैला है। यह बात ध्यान करने वाली है। जितना समय हमारे वैद्य, हकीम या सरकारी तंत्र लिची की खोज में लगा यदि इतना समय उस चमकी बुखार वाले संक्रमण की खोज में लगा देंतो शायद अभी तो नहीं परंतु आने वाले समय में चमकी जैसे बुखार से हम पार पाने में कुछ हद तक सफल हो सकते हैं।

बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार से मरने वालों का आंकड़ा 139 तक पहुंच गया है इनमंे 80 बच्चियां हैं। हजारों मरीजों का इलाज किया जा रहा है। इनमें से कई लोगों की हालत गंभीर है। हैरानी की बात है कि न तो अब तक डॉक्टर्स और न ही सरकार तय कर पाई है कि यह कौन सी बीमारी है। लेकिन इलाके के आसपास इसे चमकी बुखार कहा जा रहा है। ये एक संक्रामक बीमारी है। इस बीमारी के वायरस शरीर में पहुंचते ही खून में शामिल होकर अपना प्रजनन शुरू कर देते हैं। शरीर में इस वायरस की संख्या बढ़ने पर ये खून के साथ मिलकर व्यक्ति के मस्तिष्क तक पहुंच जाते हैं। मस्तिष्क में पहुंचने पर ये वायरस कोशिकाओं में सूजन पैदा कर देते हैं। जिसकी वजह से शरीर का ’सेंट्रल नर्वस सिस्टम’ खराब हो जाता है। चमकी बुखार में बच्चे को लगातार तेज बुखार चढ़ा रहता है। बदन में ऐंठन के साथ बच्चा अपने दांत पर दांत चढ़ाए रहता हैं। शरीर में कमजोरी की वजह से बच्चा बार-बार बेहोश होता रहता है। शरीर में कंपन के साथ बार-बार झटके लगते रहते हैं। यहां तक कि शरीर भी सुन्न हो जाता है।

विगत दो-तीन साल पहले एक बुखार हमारे देश में विदेशी संक्रमण फैलने से हुआ था जब हमारे देश में नोटबंदी लगी थी उससे दो-तीन महीने पहले ही यह खतरनाक वारयल ने पूरे देश में आहाकार मचा दिया था। मुझे किसी सज्जन ने बताया था कि एक कब्रिस्तान में 38 बुखार से मर जाने के कारण उनकी सईया वहां पर थी। यानि एक के बाद एक बुढ़ों, बच्चों को यह बुखार अपने आगोश में ले रहा था। उस समय देश की स्वास्थ्य सेवाएं लचर साबित हुई। जिसका असर ऐसा था कि यदि बुखार से पीड़ित मरीज ठीक भी हो गया तो उसके जोड़ों में दर्द आज भी देखा जाता है। फिर भी दवाईयों ने कार्य किया ही होगा क्योंकि हमारी स्वास्थ्य सेवाएं बहुत अच्छी हो सकती हैं। यहां एक बात गौर करने वाली बात यह है कि जिस लीची की खोज में आज हमारे देश के चिकित्सक लगे हुए हैं उसी लिची या बकरी का दूध या गिलोय इसी बीमारी में रामबाण सिद्ध हुआ था। अच्छे-अच्छे चिकत्सीय पद्धति फैल साबित हुई थी। यहां एक बात गौर करने वाली यह है कि आज भी हमारी स्वास्थ्य सेवाएं कितनी बेहतर हैं यह अब आप देख रहे हैं।

मंत्री खाद्य सुरझा आयुक्तों को बाजार में बिक रही लीची की जांच के आदेश दिए हैं। उन्होंने कहा, इस बात की जांच की जाए कि क्या लीची में कोई ऐसा जहरीला पदार्थ है, जो इंसान के शरीर पर असर डाल सकता है। ऐसी खबरें हैं कि बिहार में सौ से ज्यादा बच्चों की मौत खाली पेट लीची खाने से हुई है। हालांकि इसे लेकर अब तक डॉक्टरों की राय बंटी हुई है। अब जब चमकी बुखार पर सरकारी तंत्र फेल होता हुआ दिख रहा है तो हमारी सरकारों ने नया फार्मूला बचने के लिये तैयार कर लिया है और वह यह है कि प्रकृति प्रदत्त लिची जिसने कुछ सालों पहले इसका सेवन करने से पहले न जाने कितने लोगों की जानें बचाई थी और तो बकरी का दूध ने एक नया जीवन दान दिया था जो दो सौ से ढाई सौ रूपये प्रति किलो प्राप्त हुआ था। लिची एक ऐसा फल है जिसे कुदरत ने बनाया है उसी पर हम जांच करने के नाम पर टूट पड़े हैं।

उनका कहना है कि लिची में ही कोई ऐसा होगा कि जिसका सेवन करने से बच्चे मौत के मुंह में समा रहे हैं। जबकि होना यह चाहिए था जिस वायरस के कारण बच्चे दम तोड़ रहे हैं उनके सैंपल लिये जायें यदि हमारे बसकी नहीं है तो जब अपना ईलाज विदेशों में कराते हैं तो ऐसे सैंपल विदेशों में जांच के लिये भेज तो सकते हैं क्या ऐसे समय में भी गरीब नागरिक हकदार नहीं है या फिर वह सिर्फ मरने के लिये ही हैं या फिर गिनती ही गिनने के लिये हैं। यह एक बहुत बड़ा सोचनीय प्रश्न क्योंकि आज जब हम यह कहते हुए नहीं थकते कि इक्कीसवी सदी हमारी होगी क्या ऐसे ही इक्कीसवी सदी हमारी होगी।

सुदेश वर्मा,
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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