आज सवेरे तोताराम नहीं आया। हो सकता है चाय से बड़ा कोई और कार्यक्रम आ पड़ा हो। वैसे आजकल चाय से बड़ा और महत्वपूर्ण कार्यक्रम देश में है तो नहीं फिर भी….।
मोदी जी के जल-संरक्षण कार्यक्रम के बिना भी हमारी गली में जल या तो नालियों में पूरी तरह संरक्षित और सुरक्षित है या फिर कोई मात्र छह इंच की गहराई पर डाली गई सप्लाई लाइन के बार-बार टूटते रहने से सड़क पर प्रवाहित होता रहता है। आज भी घर के सामने एक पाइप टूट गया। चूंकि गांधी जयंती है। सब ज़रूरी काम बंद। बस उत्सव।
तो देश अपने-अपने हिसाब से गांधीमय हो रहा है- गांधी के पुराने भक्त ‘महाश्रमदान’ का आयोजन कर रहे हैं तो नए भक्त चुनावी गौशाला के लिए चंदा जुटाने हेतु गांधी को ‘संकल्प-यात्रा’ के बहाने गौपाष्टमी की गाय की तरह घुमा रहे हैं। हम गांधी के भक्त नहीं हैं अनुयायी हैं सो जितना बन पड़ता है कार्य रूप में कर लेते हैं जिनमें प्रमुख है- सादगी। इससे दो फायदे हैं एक तो पैर चादर से बाहर नहीं निकलते। निकालें भी किसके दम पर। हम कौन नीरव मोदी हैं जो हमें कोई बैंक वापस न करने वाला ग्यारह हजार करोड़ी ऋण दे देगा। दूसरा फायदा यह कि गांधी के बहाने से गरीबी को गरिमामय बनाने में मदद मिल जाती है जैसे मोदी जी ने विकलांगों को एक ही झटके में दिव्य बना दिया।अंग-अंग दिव्य- दिव्यांग।
हालत पटना जैसी नहीं थी फिर भी हम बरामदे में बैठे ‘प्रलय-प्रवाह’ तो नहीं लेकिन टूटी हुई पाइप से बुडबुड कर निकलते ऊर्ध्व मुखी जल को निहार रहे थे कि कोई दस बजे तोताराम प्रकट हुआ। झकाझक सफ़ेद प्रेस किया हुआ कुरता-पायजामा और बगल में कपड़े का एक थैला।
हमने पूछा- कहां से पधार रहे हैं महाशय?
बोला- आज के दिन और कहां से पधार सकते हैं? राष्ट्रपिता के कार्यक्रम से पधार रहे हैं?
हमने पूछा- कौन से राष्ट्रपिता? बोला- राष्ट्रपिता भी किसी देश में दो-चार होते हैं क्या? अमेरिका में वाशिंगटन, रूस में लेनिन, चीन में माओत्सेतुंग, वियतनाम में हो ची मिह्न, भारत में महात्मा गांधी।
हमने कहा- पहले तो हम भी यही समझते थे लेकिन अब ज़माना बदल गया है। पहले राष्ट्रपिता को सुभाष जैसे महापुरुष मनोनीत करते थे लेकिन अब यह अधिकार ट्रंप ने ले लिया है। क्या बताएं, दुनिया के सबसे ताक़तवर देश हैं जो चाहें करें।
बोला- मैं तो महात्मा गांधी वाले कार्यक्रम में गया था। हमने कहा- उसमें भी गांधी दो हैं एक तो वे जो सीकर में महाश्रमदान का आयोजन कर रहे हैं और दूसरे वे जो मजबूरी में गाँधी को बाँस पर टांगकर पदयात्रा कर रहे हैं।
बोला- मैं तो श्रमदान वाले कार्यक्रम में गया था। हमने कहा- श्रमदान करके आ रहा है और तो कपड़ों पर एक भी सलवट और, कपड़ों पर मिट्टी का एक भी दाग क्यों नहीं है? न ही पसीने की कोई गंध। यह कैसा श्रमदान किया?
बोला- आजकाल ऐसा ही श्रमदान होता है जैसे कि पिछले पांच सालों से स्वच्छ-भारत में हो रहा है।
रमेश जोशी
लेखक देश के वरिष्ठ व्यंग्यकार और ‘विश्वा’ (अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति, अमरीका) के संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं। मोबाइल – 9460155700
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