गठबंधन तो ऐसे ही चलता है!

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अकाली दल को शिकायत है कि भाजपा अब पहले वाली भाजपा नहीं रह गई है। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के समय सहयोगी पार्टियों को जैसा सम्मान मिलता था, वैसा सम्मान अब नहीं मिलता है। अकाली दल ने जैसे ही यह शिकायत की, शिव सेना ने आगे बढ़ कर उसका समर्थन किया। पर क्या सचमुच भाजपा का मौजूदा नेतृत्व यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहयोगी पार्टियों के साथ अच्छा बरताव नहीं करते हैं और उनके बरताव की वजह से शिव सेना और अकाली दल एनडीए से बाहर हुए हैं? यह पूरी तरह से सच नहीं है। असल में गठबंधन की राजनीति पार्टियों की हैसियत और उनकी जरूरत से चलती है, जिस पर विचारधारा का झीना सा परदा डाला जाता है। गठबंधन में जब नेतृत्व करने वाली पार्टी बहुत मजबूत हो जाती है तो वह सहयोगियों को महत्व देना कम कर देती है। सहयोगियों की पूछ घटने की दूसरी स्थिति यह होती है कि सहयोगी पार्टी कमजोर हो जाए या उसकी जरूरत समाप्त हो जाए। एक तीसरी स्थिति होती है, जब सहयोगी पार्टियों की महत्वाकांक्षा बहुत बढ़ जाए या उसके सामने मजबूरी आ जाए तब गठबंधन टूटता है।

असल में गठबंधन की राजनीति पार्टियों की आपसी जरूरत और उनकी राजनीतिक ताकत पर टिकी होती है। सभी पार्टियों को इस हकीकत को जानना और समझना चाहिए। उन्हें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि अमुक नेता बहुत भले थे तो उन्होंने बड़ा सम्मान दिया या अमुक नेता निजी तौर पर बहुत अहंकारी हैं इसलिए उन्होंने सहयोगियों का सम्मान नहीं किया। राजनीति में नेता के निज व्यवहार का कोई खास मतलब नहीं होता है। इसे सिर्फ एक मिसाल से समझा जा सकता है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए अगर निज व्यवहार में कोई नेता सबसे करीबी हो सकता है तो वे लालू प्रसाद हैं, जिन्होंने सोनिया को देश की बहू बता कर विदेशी मूल के मुद्दे पर हमेशा उनका बचाव किया। पर 2009 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस 206 सीट जीत गई और लालू प्रसाद की पार्टी को सिर्फ पांच सीटें मिलीं तो कांग्रेस और सोनिया गांधी ने लालू प्रसाद को घास नहीं डाली।

यह सही है कि चुनाव से पहले लालू प्रसाद ने अपनी महत्वाकांक्षा में एकतरफा तरीके से कांग्रेस से तालमेल खत्म कर लिया था। पर उसके बाद तो लालू दिल्ली में सोनिया से लेकर हर कांग्रेसी के दरबार में भटकते रहे थे और निराश होकर कहा था कि ‘अब समझ में आया कि दिल्ली में सिर्फ ताकत की पूजा होती है’। जब उनके पास 25 सांसद थे तब उनके हिसाब से यूपीए सरकार चलती थी, जब उनके पांच रह गए तो किसी ने नहीं पूछा। तब लालू प्रसाद खुद चुनाव जीत कर आए थे और जिन रघुवंश प्रसाद को मनरेगा मैन कहा जा रहा है और जिनके निधन पर कांग्रेस के नेता आठ-आठ आंसू रोए वे भी जीत कर आए थे पर कांग्रेस ने राजद को यूपीए में लेकर लालू या रघुवंश प्रसाद को मंत्री बनाने की जरूरत नहीं समझी। लालू प्रसाद की पार्टी राजद अब भी यूपीए का हिस्सा है पर 2009 से 2014 तक जब कांग्रेस मजबूत रही और सत्ता में रही तब उसने लालू की पार्टी को यूपीए में नहीं रखा। सो, गठबंधन की राजनीति नेताओं के निज व्यवहार से नहीं, बल्कि पार्टियों की ताकत और जरूरत के हिसाब से चलती है।

ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहयोगी पार्टियों और उनके नेताओं के साथ अच्छा बरताव नहीं करते हैं। उनका अच्छा बरताव इस बात से तय होता है कि सहयोगी पार्टी की उनको कितनी जरूरत है और सहयोगी पार्टी कितनी मजबूत हैं। याद करें कैसे पिछले लोकसभा चुनाव में दो सांसदों वाली पार्टी जनता दल यू को भाजपा ने अपने बराबर सीटें दी थीं। नीतीश कुमार 2014 में अकेले चुनाव लड़ कर दो सीट की हैसियत में आए थे। पर 2019 के चुनाव में बिहार की 40 सीटों के बंटवारे में भाजपा और जदयू 17-17 सीटों पर लड़े। तब से लेकर अभी तक नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोहराते रहते हैं कि नीतीश ही बिहार में एनडीए के नेता हैं और इस बार भी विधानसभा का चुनाव भाजपा उनके चेहरे पर ही लड़ रही है। सोचें, नीतीश का निज व्यवहार नरेंद्र मोदी के प्रति कैसा रहा था। नीतीश ने उनके नाम पर एनडीए छोड़ा था और मोदी ने उनके डीएनए में खोट बताया था पर आज दोनों एक-दूसरे का ‘सम्मान’ कर रहे हैं। असल में यह कोई सम्मान नहीं होता है, एक-दूसरे की जरूरत होती है, जो कभी भी खत्म हो सकती है।

शिव सेना और अकाली दल दोनों इस बात की दुहाई दे रहे हैं कि अटल-आडवाणी की भाजपा अलग थी। वह अलग इसलिए थी क्योंकि भाजपा उस समय 183 सीटों की पार्टी थी और वाजपेयी की सरकार दो दर्जन सहयोगी पार्टियों पर निर्भर थी। आज वह 303 सीट की पार्टी है और किसी पर निर्भर नहीं है। सो, अगर उसके नेताओं की सोच और सहयोगियों के प्रति उनका बरताव बदला है तो वह नेता के निजी चारित्रिक गुणों के कारण नहीं हुआ है, बल्कि इस आंकड़े के कारण हुआ है कि भाजपा आज किसी पर निर्भर नहीं है। इसके बावजूद आज भी जहां जरूरत पड़ती है वहां पार्टी के 56 इंची छाती वाले नेता भी समझौता करते हैं, सहयोगियों की शर्तें मानते हैं और उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी भी देते हैं। और जो लोग अटल-आडवाणी की भाजपा को बेहतर बता रहे हैं क्या उनको याद नहीं है कि उस समय भी सहयोगी पार्टियां भाजपा को छोड़ कर गई थीं!

आज शिव सेना और अकाली दल को शिकायत है पर असलियत यह है कि शिव सेना ने अपना मुख्यमंत्री बनाने की जिद में गठबंधन तोड़ा और अकाली दल ने किसान वोट की मजबूरी में एनडीए छोड़ा है। परंतु एक फैशन बन गया है कि सबका ठीकरा मोदी-शाह के निज व्यवहार पर फोड़ना है। जैसे मोदी-शाह के कारण ही एनडीए बिखर रहा है! अगर ऐसा है तो अटल-आडवाणी के समय क्यों एनडीए बिखरा था? डीएमके से लेकर तृणमूल कांग्रेस और टीडीपी से लेकर नेशनल कांफ्रेंस तक अनगिनत पार्टियां क्यों भाजपा से अलग हो गई थीं? ऐसे ही 145 सीट वाली कांग्रेस ने 2004 में यूपीए बनाया तो डेढ़ दर्जन सहयोगी पार्टियां साथ थीं पर 2009 में जब उसे 206 सीटें आईं तो उसने सहयोगियों के साथ क्या किया? उसने तो अपने सहयोगियों को ही पकड़ कर जेल में डाल दिया और 2014 आते आते दो-चार को छोड़ कर बाकी सारे सहयोगी यूपीए छोड़ गए।

असल में राजनीति में सबकी अपनी जरूरतें होती हैं, अपनी उपयोगिता होती है और अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। राष्ट्रीय पार्टियों की अपनी जरूरतें होती हैं और क्षेत्रीय पार्टियों के अपने हित होते हैं। सबकी राजनीति अपनी जरूरतों और अपने हितों से परिभाषित होती हैं और उसी से गठबंधन तय होते हैं। उसके लिए किसी एक नेता को या किसी एक पार्टी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। दूसरे, गठबंधन की राजनीति कभी भी एकतरफा नहीं होती है। यह हमेशा दोतरफा प्रक्रिया है और जब तक दोनों के हित पूरे होते रहेंगे, तभी तक गठबंधन बना रह सकता है। अगर पार्टियां इस राजनीतिक वास्तविकता को समझने लगेंगी तो नेताओं को दोष देना बंद कर देंगी।

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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