खाड़ी में जंग की आशंका से चिंतित विश्व

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फिलहाल अमेरिका और ईरान तनावग्रस्त होने पर भी शांत दिखाई दे रहे हैं। पर इसे तूफान से पहले की शांति भी मान सकते हैं। कुल मिलाकर इस खामोशी को शांति का नाम नहीं दिया जा सकता। हालात ठीक नहीं है।
पूरा विश्व चिंतित है। आशंका है कि कहीं यह युद्घ वैश्विक आकार ग्रहण न कर ले। अमेरिका अपनी दबंगई से पीछे हटने को तैयार नहीं है, उधर ईरान के स्वाभिमान का भी प्रश्न है। वह संसार का एक मात्र घोषित शिया देश है। उसकी सेना प्रत्यक्ष युद्घ में विश्व की श्रेष्ठतम सेनाओं में गिनी जाती है। अमेरिका के पास तकनीक है तो ईरान के पास युद्घ में कुशल तथा आत्मबली सेना। यदि युद्घ हो जाता है तो इसका कुप्रभाव पूरे विश्व पर होगा। भारत भी उस प्रभाव से बच नहीं सकता। वैसे ईरान के भीतर ही जंग न करने की मांग भी उठ रही है। यदि युद्घ की आशंका को नहीं रोका जा सका। तो यह युद्घ नबे के दशक जैसे खाड़ी युद्घ से अघिक विकराल होगा। पश्चिमी एशिया में शक्तिशाली देशों की सैन्य दखल से हालात को भयावह बना दिया है। सीरिया की स्थिति ठीक नहीं है, इराक आईएस की हिंसात्मक गतिविधियों के कारण बदहाल है। कुर्दों के विद्रोह ने भी पश्चिमी एशिया को युद्घमय कर रखा है। तुर्की की हालत भी अच्छी नहीं है। ऐसी स्थिति में विश्व के अनेंक देश एशिया और अफ्रीका के मुस्लिम देशों में अपने आर्थिक स्वार्थ पूरे करने के लिए आग में घी का काम कर रहे हैं। सीरिया इसी कारण पूरी तरह से बरबाद हो चुका है। ऊपर से आईएस जैसे संगटन और बहावी सोच इन राष्ट्रों में राजनीतिक स्थिरता में बाधा पैदा कर रही है। एक समय कहा जाता था कि सीरिया, लीबिया और इराक जैसे देश पश्चिमी देशों की भांति विज्ञान तथा तकनीक में उन्न्नति कर पश्चिमी देशों से आगे निकल सकते हैं। लेकिन अमेरिका ने इन देशों के भीतर असंतोष का लाभ उठाया और बरबाद कर दिया। ईरान अमेरिका की पकड़ से बाहर रहा है। सन 1979 से अमेरिका तथा ईरान के संबंधों में खटास है। एक अंहकारी देश को यह कहां स्वीकार था कि कोई अदना सा देश उससे आंख मिला कर बात कर सके। अमेरिका जो अपना न्यायशास्त्र स्वयं तैयार करता है, उसके लिए ईरान का राष्ट्रीय स्वाभिमान स्वीकार्य नहीं था। यही हुआ भी। एक समय ऐसा भी था जब ईरान को अमेरिका का अनुचरी देश कहा जाता है। आर्यमिहिर शाह रजा पहलवी ईरान के बादशाह थे, वे सन 1953 में अमेरिका की सहायता से ईरान के शासक बनें। उस समय अमेरिका और ईरान एक-दूसरे की दांत काटी रोटी थे। सन 1979 में खुमैनी की सर्व इस्लाम क्रांति के बाद स्थिति बदल गई। वैसे अपनी आरम्भिक जीवन में वे वामपंथ के निकट थे और उनका धार्मिक दृष्टिकोण बहुत उदार था। लेकिन सत्तासीन होने के बाद उनका नजरिया बिल्कुल बदल गया, वे ईरान को पूरी तरह से एक पूर्ण व्यावहारिक इस्लामी राष्ट्र के रूप में विकसित करना चाहते थे। इसलिए अमेरिका सहित दूसरे पाश्चात्य देशों के साथ संबंध अच्छे नहीं रहे। उसकी प्रतिक्रिया में सुन्नी देशों ने अमेरिका के साथ सैन्य समझौते किए।

यही कारण है कि ईरान चारों ओर से अमेरिका के सैन्य केंद्रों से घिरा है। यदि युद्घ होता है तो ईरान को उन देशों पर आक्रमण करना होगा, जो उसके धर्मबंधु हैं। यदि युद्घ होता है तो यह मुस्लिम देशों में ही होगी। इससे पूरे विश्व का आर्थिक संतुलन कंपित हो जाएगा। भारत जैसे देशों का भारी हानि हो सकती है। भारत ईरान का बड़ा तेल ग्राहक है। देश में खपत होने वाले तेल का अस्सी प्रतिशत ईरान से ही आता है। उधर लाखों भारतीय कामगार मध्य एशिया के देशों में काम करते हैं। अमेरिका पर कोई विशेष प्रभाव नहीं होगा। लेकिन एशिया की विकास गति थाम जाएगी। भारतीय विदेशी मुद्रा कोष में कमी आने की आशंका है। शेयर बाजार में निराशा के भाव पैदा हो भी चुके हैं। जहां तक अमेरिका का प्रश्न है वह विकास की निश्चित सीमा रेखा को बहुत पहले ही स्पर्श कर चुका है। सन 1776 में अमंरिका एक सम्प्रभु राष्ट्र के रूप में उदित हुआ। सन 2020 के आधार पर आकलन करे तो अमेरिका 222 साल युद्घ में लिप्त रहा है। उसकी प्रवृति युद्घप्रियता की है। उसकी एक और विशेषता है कि वह जंग के लिए दूसरों कें कंधों का प्रयोग करता है। असल बात यह है कि अमेरिका सहित पश्चिमी जगत के आर्थिक स्वार्थ मुस्लिम देशों से जुड़े हैं।

इस देशों की समृद्घि में तेल उत्पादक देशों का भी उल्लेखनीय योगदान है। मुस्लिम देश तकनीकी विकास में काफी पीछे हैं जिसका लाभ पश्चिमी देश उठा रहे हैं। इसलिए यह मान लेना सही नहीं होगा कि यदि ईरान पर अमेरिका कोई अन्य सैन्य कार्रवाई करता है तो मुस्लिम देशों का समूह उसके साथ होगा। मध्य-पश्चिमी तथा पश्चिमी एशिया के लगभग सभी देशों में नाटों की सेनाएं तैनात है। यही कारण है कि अधिकांश मुस्लिम देशों में अमेरिका सहित नाटो देशों की सेनाएं तैनात रहती हैं। यदि युद्घ होता है तो अमेरिका को खाड़ी में सेना भेजने में समय नहीं लगेगा। इसके पश्चात यह युद्घ केवल अमेरिका और ईरान तक सीमित नहीं होगा। ईरान अपनी रक्षा के लिए पश्चिमी देशों में स्थित अमेरिकी सैन्य केंद्रों पर आक्रमण करेगा, लेकिन वहां अमेरिका के साथ सभी नाटो देशों के सैनिक हैं। वे अपने सैनिकों की रक्षा के लिए अमेरिका की कार्रवाई का समर्थन करेंगे। संयुक्त अरब अमीरात, कतर, सउदी अरब, कुबैत, सीरिया और जोर्डन से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे युद्घ में ईरान के साथ खड़े हो सकते हैं। चीन और रूस ईरान के साथ आ सकते हैं। यह स्थिति विश्व युद्घ की हो सकती है। भारत की भूमिका शांति स्थापना के प्रयासों की हो सकती है। इसका प्रमुख कारण यह भी है कि यदि यह जंग होती हैं जो भारत के आर्थिक हितों पर नकारात्मक प्रभाव होगा।

भारत ईरान से अपनी खपत का अस्सी प्रतिशत खनिज तेल आयात करता है। युद्घ की स्थिति में भारत पर इसका विपरीत प्रभाव होगा। इससे आर्थिक तथा औद्योगिक विकास में बाधा आ सकती हैं। ईरान भारत के लिए चाय, दवाई, छोटे यंत्र, सूती वस्त्र तथा बासमती चावल का बड़ा बाजार है। ईरान को नवंबर 2019 तक 5,043 करोड़ किलोग्राम चाय का आयात किया गया, जबकि सीआईएस देशों को कुल 5,280 करोड़ किलोग्राम चाय का निर्यात किया गया। पिछले वित्त वर्ष में भारत ने कुल 32,800 करोड़ रुपये का बासमती चावल निर्यात किया था, जिसमें से लगभग 10,800 करोड़ रुपये मूल्य का चावल ईरान को निर्यात किया था। ऐसी स्थिति में भारत के लिए आवश्यक है कि खाड़ी में शांति बनी रहे। इस दिशा में भारत के प्रयास महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। पर, सवाल अमेरिका की विश्वसनीयता का है। वह कभी भी बिना किसी चेतावनी के आक्रमण कर सकता है। उधर ईरान सरकार और उसकी सेना के शीर्ष अधिकारी अमेरिका को लगातार धमकी दे रहे हैं, कि वे अमेरिका से बदला अवश्य लेंगे। पर, बदले की सीमा कहां समाप्त होती है। इसका उल्लेख उन्होंने नहीं किया है।

जहां तक अमेरिका का प्रश्न है, वह ईरान को अपना परम्परागत शत्रु मानता है। इसके कुछ ऐतिहासिक कारण भी है। सन-1979 में तेहरान में ईरानी छात्रों के एक समूह ने अमरीकी दूतावास को अपने कजे में ले लिया था और 52 अमरीकी नागरिकों को 444 दिनों तक बंधक बनाकर रखा था। अमेरिका को यह संदेह है कि खुमैनी का समर्थन उपद्रवी छात्रों के साथ था। इस घटना के बाद इराक तथा ईरान युद्घ हुआ था। यह नबे के दशक का सबसे व्यापक तथा दीर्घकालीन युद्घ था। इसमें इराक के साथ अमेरिका तथा रूस खड़े थे। आठ साल तक चले इस युद्घ में पांच लाख से अधिक लोग मारे गए और करोड़ों का सामान्य जीवन नष्ट हो गया। इराक ने ईरान में रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया था और ईरान में इसका असर लंबे समय तक दिखा। ईरान का पुन: उठकर चलने में दो दशक से अधिक का समय लगा। ईरान ने इराक तथा उसके मित्र राष्ट्र कस सामना करने के लिए परमाणु ऊर्जा के विकास को प्राथमिकता दी। वह परमाणु बम विकसित करना चाहता था। लेकिन सन 2002 में उसका गुप्त कार्यक्रम सार्वजनिक हो गया। परमाणु समझौते के विपरीत ईरान की नीति का बहाना कर अमेरिका कभी भी युद्घ कर सकता है।

अशोक त्यागी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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