क्या हम कोई ट्रंप हैं ?

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बचपन में माँ शिव रात्रि के व्रत के दिन देशी घी में आलू का हलवा बनाती थी। उसी के लालच में व्रत का नाटक कर लिया करते थे। हलवा मिल जाने के बाद व्रत के सभी आकर्षण और प्रतिबन्ध ढीले पड़ जाते थे । फिर हम शिव को उसी प्रकार भूल जाते थे जैसे जीतते ही नेता जनता को और सभी प्रकार की नैतिकताओं को भूल जाता है । अब चूँकि न आलू का हलवा बनाने वाली माँ रही और न ही उतना गरिष्ठ भोजन पचा पाने की जठराग्नि । फिर भी व्रत तो व्रत है ।इसके बहाने स्कूलों की छुट्टी होती है, नेता एक ट्वीट से 135 करोड़ भारतीयों को शुभकामना दे देते हैं । सामान्य लोग भी डर या पब्लिक इमेज के चक्कर में व्रत के मुहूर्त आदि के बारे में चर्चा करते हैं । हमें अब न तो शिव से कुछ मांगना और न ही ऐसा कोई पद जिसके मद में पाप करने का साहस कर सकें ।जहां तक जनवरी की पेंशन की बात है तो वह तो जब मोदी जी की कृपा होगी तभी रिलीज़ होगी ।

खैर, बरामदे में बैठे थे। सुबह अचानक हवा में ठंडक आ गई है । पता नहीं, ट्रंप को अहमदाबाद की गरमी से बचाने के लिए या हमें जुकाम के चक्कर में डालने के लिए । हो सकता है इसी कारण तोताराम को विलंब हो रहा है । अकेले ही चाय पीने का निर्णय लिया । गिलास उठाया ही था कि तोताराम का पोता बंटी आया, बोला- आज दादाजी नहीं आएँगे ।वे कुछ ज़रूरी तैयारियों में व्यस्त हैं । उन्होंने कहलवाया है कि आज शाम चार बजे आप हमारे यहाँ आएं । यह भी कहा है कि जऱा ढंग के कपड़े पहनकर आएँ । हमें बड़ा अजीब लगा ।ढंग के कपड़े का क्या मतलब ? क्या हम बेढंगे कपड़े पहनते हैं ?यह ठीक है कि हमारी हैसियत मोदी जी की तरह दिन में चार बार, एक से बढ़कर एक डिजाइन और रंगों के कुरते पायजामे पहनने की नहीं है लेकिन इसका क्या मतलब ? क्या हम कुछ भी नहीं ? कपडे ही महत्तवपूर्ण हो गए?

सोने की प्लेट में गोबर परोस दिया जाए तो क्या वह कलाकंद हो जाएगा ? गधे को चन्दन लगा देने से वह पंडित नहीं हो जाता । जेब में चार-चार पेन रखने से क्या चश्मा लगा लेने से कोई पढ़ा लिखा नहीं हो जाता । तुलसी कहते हैं-तुलसी देखि सुवेष भूलहिं मूढ़ न चतुर नर । हमें बड़ी चिढ़ हुई लेकिन बंटी से क्या कहते ? फिर भी रहा नहीं गया तो पूछा- क्या ढंग के कपड़ों में तोताराम हमारा नमस्ते ट्रंप या कम छो ट्रंप कार्यक्रम करने वाला है ? बोलाबड़े दादाजी, वैसे तो यह आप दोनों के बीच का मामला है फिर भी यदि वे ऐसा करें तो क्या बुराई है ? कौन सा हाउ डी मोदी की तरह ह्यूस्टन में भारत मूल के लोगों का और अहमदाबाद में भी भारत के लोगों के टेस का पैसा फूंकना है । यह तो घर का मामला है ।चाय यहाँ न पीकर वहाँ पी ली ।

हमने कहा- लेकिन नमस्ते ट्रंप की तरह कार्यक्रम करने में अहमदाबाद की झुग्गियों की तरह अपने मोहल्ले की ये गन्दी नालियां, कूड़ेदान के बाहर डाल दिया गया गंध मारता कचरा किस इत्र से महकाओगे या किस दीवार से ढकोगे ?खैर, हम तो ट्रंप बनें या नहीं लेकिन इस बहाने तोताराम ज़रूर मोदी जी होने का भ्रम पालना चाहता है । बोला- बड़े दादाजी, आप तो सचमुच ही ट्रंप की तरह पूरे मूड में आ गए। ट्रंप भी तो वहाँ अमरीका में लोगों से कह रहे थे कि उनके स्वागत में हवाई अड्डे से मोटेरा स्टेडियम तक सत्तर लाख लोग खड़े होंगे ।

अब उन्होंने यह संख्या बढ़ाकर एक करोड़ कर दी है । जबकि अहमदाबाद की कुल जनसँख्या भी सत्तर लाख नहीं है । और जहां तक गरीबी को दीवारों से ढकने की बात है तो ऐसी दीवारों की असलियत से क्या ट्रम्प नावाकिफ हैं ? उनके यहाँ भी तो ओलम्पिक के समय लोसएंजेलस में सड़क के किनारे रहने वाले गरीबों को रातों रात ट्रकों में भरकर दूर कहीं ले जाकर छोड़ दिया गया था । सबके आडम्बर एक जैसे ही होते हैं । एक दूसरे को ठगने वाले दोनों ठग एक दूसरे को जानते हैं।

 

रमेश जोशी

(लेखक देश के वरिष्ठ व्यंग्यकार और ‘विश्वा’ (अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, अमरीका) के संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं। मोबाइल -09460155700 blog-jhoothasach.blogsport.com (joshikavirai@gmail.com)

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