क्या जुमलों से चलेगा हमारा देश !

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विश्व में जहां-जहां लोकतंत्र है। वहां चुनाव की प्रक्रिया में जाना जरूरी है। अब वह अलग-अलग तरीके से होता है कहीं पर जनता सीधे राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री चुनती है, तो कहीं चांसलर। सब देशों की परंपराएं अलग-अलग हैं। पार्टियां या प्रत्याशी अपने पक्ष में वोट मांगने के लिए और दूसरी पार्टियों की कमियों को उजागर करने के लिये आज के दौर को देखें तो किसी भी हद को पार करने के लिये तैयार हैं। जैसे ‘आया फैंकू’ उनके साथ अली, हमारे साथ बजरंग बली। इस तरह के अनेकों स्लोगन जनता के सामने हर दिन फैंके जाते हैं। फर्क इतना है कि इस चुनाव में कोई बहुत बड़ा और व्यापक असर डालने वाला स्लोगन अभी तक नहीं आया है। दूसरे बड़े लोकतांत्रिक देश अमेरिका में भी इस तरह की जुमलेबाजी के अपने रिकॉर्ड हैं। 2008 में बराक ओबामा ने एक स्लोगन दिया था ‘बदलाव में हमें विश्वास है’ तो बहुत समय पहले 1864 में अब्राहम लिंकन ने एक बड़ा स्लोगन दिया कि ‘बीच मझधार में घोड़े नहीं बदले जा सकते।’ कहने का तात्पर्य था कि अब चुनाव के इस मौके मन को शांत रख एकाग्रता जरूरी है।

इस लोकतंत्र के महापर्व में नेताओं के बोल और पार्टी के स्लोगन कुछ अलग रंग ढाह रहे हैं और जो शायद आज से कुछ दशकों पहले जिन बोलों को सोचें भी नहीं जा सकता था वह बोल जो नामुमकिन थे अब मुमकिन हो गये। लेकिन इस चुनाव में अभी तक कोई ऐसा स्लोगन नजर नहीं आ रहा है जो बहुत बड़े बदलाव का घोतक बने। सबसे पहला अगर कहें तो स्लोगन बना था ‘जय जवान, जय किसान’’ 1965 के बाद क्योंकि यह देश की जरूरत थी और इसी के चलते 1967 कांग्रेस ने जीत हासिल की। लेकिन बदलाव के लिये एक और स्लोगन आया ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’। यह स्लोगन 1977 के चुनाव में कारगर साबित हुआ और जनता पार्टी के लिये एक वरदान बना। सबको अलग-अलग अपनी नेतागिरी चमकाने का मौका मिला और शायद इसी के चलते एक स्लोगन आया ‘बारी-बारी, सबकी बारी, अबकी अटल बिहारी।’ और इस स्लोगन के चलते अटल जी को 13 दिन का प्रधानमंत्री पद मिला। चुनावी नारों की राजनीति में अहम भूमिका रही है। अब ऐसे नारे कम ही सुनने को मिलते हैं। जैसे जल झोंपड़ी भागे बैल, देखों यह दीपक का खेल’।

उस समय बीजेपी के पहले जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक था और कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी थी। आज जैसे सोनिया, राहुल और प्रियंका के लिये अक्सर कहा जाता है रानी, राजकुमार और राजकुमारी उसी तरह सन 1977 में एक नारा था ‘संजय की मम्मी बड़ी निकम्मी’। दूसरा था ‘बेटा कार बनाता है, मॉं बेकार बनाती है।’ एक और बड़ा नारा था ‘नसबंदी के तीन दलाल, इंदिरा, संजय, बंशीलाल।’’ पक्ष में नारे थे ‘एक शेरनी, सौ लंगूर, चीक मंगलूर, चीक मंगलूर।’ यहां तक कि नारों की इस आंधी में यहां तक कह दिया गया कि देश की जनता भूखी है यह आजादी झूठी है’ यह नारा कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा दिया गया। दूसरा नारा था ‘लालकिले पर लाल निशन मांग रहा है हिन्दुस्तान’। नारे तो आखिर नारे ही हैं कहने में क्या है। 1971 से आज तक एक नारा सभी नेताओं की जुबान पर सुनने को मिलता है ‘गरीबी हटाओ’। लेकिन इसके शुरूआत इंदिरा गांधी ने की थी और वह बोलती थीं कि ‘वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ’ फैसला आपको करना है।’ 1989 में वीपी सिंह को लेकर एक नारा जनता के बीच फैंका गया। वह था ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।’

भारत में बदलाव की बयार चलती रहती है। लोकतंत्र में सबको समान अधिकार प्राप्त है तो कभी चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बन जाता है तो कभी खेतिहर, मजदूर या किसान का बेटा मुख्यमंत्री। बिहार में यही हुआ। लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बनें और उनके दूसरे चुनाव में एक नारा दिया गया ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू।’’ जात-पात और धर्म हमेशा भारत के चुनाव में किसी न किसी रूप में नारों की शक्ल में रहे हैं। जैसे काशीराम ने एक नारा दिया ‘ठाकुर, बाभन, बनिया चोर, बाकी सब हैं डीएसफोर, तिलक-तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार।’ तो बसपा ने एक नारा दिया ‘चलेगा हाथी उड़ेगी धूल, न रहेगा हाथ, न रहेगा फूल।’ तो विपक्षियों ने नारा दिया ‘गुंडे चढ़ गये हाथी पर, गोली मारेंगे छाती पर’। अब मंदिर, मस्जिद, धरती-आसमान सब पर नारे बने। 1999 में बीजेपी का एक नारा था ‘राम और रोम की लड़ाई’। तो 2007 में बसपा का नारा था ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रहमा, विष्णु, महेश है। तो दूसरी तरफ कहा गया ‘मिले मुलायम-काशीराम हवा हो गये जय श्रीराम।

आज साईकिल और हाथी की यह सवारी एक लंबे अंतराल के बाद एक बार फिर हम साथ-साथ हैं और बुआ और बबुआ दोनों साथ मिलकर नारा लगा रहे हैं कि ‘मोदी हटाओ’। इन सब नारों के बीच हमेशा से चुनाव एक महापर्व के रूप में सारे लोकतंत्र में मनाया जाता है। खूबसूरत बात यह है कि इन नब्बे-सौ दिनों की जुमलेबाजी के बाद जब हमारे जनप्रतिनिधि चुनकर लोकतंत्र के मंदिर में पहुंचते हैं तो सब एक कसम खाते हैं कि देश हमेशा सर्वोपरि है और नारे तो हवा का एक झोका है जो चुनाव दर चुनाव समय के साथ बदलते रहते हैं। अब नामुमकिन को मुमकिन करने के जादूगर कुछ लोग हैं तो दूसरी तरफ बहत्तर हजार रूपये एक चुनावी जुमला सामने है। चलो एक नारा है ‘अबकी बार बहत्तर हजार’ तो दूसरे का नारा है ‘चौकीदार चोर नहीं श्योर है।’ और तो और अली, बजरंग बली सब तरफ कमान संभाले हैं तो अक्सर एक नाम सभी की सभाओं में गूंजता है वह मोदी-मोदी।’ तो बनारस से लेकर दूर-दूर तक गूंज रहा है हर-हर मोदी, घर-घर मोदी।’ इसको देखते हुए कभी-कभी ऐसा लगता है कि आने वाले समय में कहीं ऐसा न हो कि लोग नमस्कार, प्रणाम, गुड मोर्निंग की जगह एक-दूसरे का अभिवादन मोदी-मोदी कहकर न करेने लगें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

यह हम सबके सोचने का विषय है कि आज वोटरों की इस लहलाती फसल को काटने के लिये जो कसमें-वादे, प्यार और वफा सब दिखाई जा रही है वह बाद में यह न हो जाये वादे हैं, वादों का क्या। अगली बार कुछ और करेंगे अभी के लिये बस इतना ही।

आर0पी0 सिंह
सीईओ, सुभारती मीडिया लिमिटेड, मेरठ

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