कैसे फंस गए अदाणी – अंबानी ?

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आपको 1960 के दशक के समाजवादी युग की हिन्दी फिल्में याद हैं, जिनमें अक्सर शोषण करने वाले बुरे उद्योगपति को विलेन बताया जाता था? अब, दशकों बाद, किसान आंदोलन ने ऐसा ही स्टिरियोटाइप ‘दुश्मन’ बनाया है। सिंघु बॉर्डर पर ‘अदाणी-अंबानी’ को निशाना बनाते ढेरों पोस्टर दिख जाएंगे। पंजाब में रिलायंस जियो टेलीकॉम के टॉवरों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है और अदाणी के उत्पादों का बहिष्कार हो रहा है।

ऐसे विरोध के कारण अदाणी और अंबानी समूहों को सार्वजनिक बयान जारी करना पड़ा कि उनकी भविष्य में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में आने की कोई योजना नहीं है। जो किसान संघों और मोदी सरकार के बीच राजनीतिक टकराव के रूप में शुरू हुआ था, उसमें भारत की सबसे बड़ी कंपनियां कैसे फंस गईं? हाल के समय में शायद ही कॉर्पोरेट भारत को इस तरह से निशाना बनाया गया हो। आखिरी बार बिजनेस समूहों को सीधे ऐसे आंदोलन में 2011 में इंडिया अगेन्स्ट करप्शन में घसीटा गया था। तब अरविंद केजरीवाल ने विशिष्ट कॉर्पोरेट्स को राजनीतिक साठगांठ का आरोप लगाते हुए लगातार निशाना बनाया था। लेकिन सत्ता में आने के बाद केजरीवाल ने धीरे-धीरे रास्ता बदल लिया।

राजनीतिक आंदोलन के केजरीवाल ब्रांड द्वारा खाली की गई जगह को राहुल गांधी ने भरा। ये राहुल ही थे जिन्होंने ‘अदाणी-अंबानी’ पर हमले को 2014 के चुनाव प्रचार का अहम हिस्सा बनाया। फिर 2015 में उन्होंने मोदी सरकार को ‘सूट-बूट की सरकार’ कहा, जिसने सरकार को ऐसी नीतिगत पहल के लिए मजबूर किया जिससे उसकी ‘गरीबों की सरकार’ वाली छवि बने।

अब पांच साल तथा एक और चुनावी हार के बाद राहुल फिर किसानों की चिंता के जरिए पुराने ढर्रे पर लौटे हैं। लेकिन काफी हद तक कांग्रेस नेतृत्व का अदाणी-अंबानी पर हमला पेचीदा और थोड़ा पाखंडपूर्ण लगता है। यह कांग्रेस ही थी जिसने सत्ता में रहते हुए कॉर्पोरेट घरानों से संबंध बनाने की शुरुआत की। अंबानी के साम्राज्य की शुरुआत 1980 के दशक में इंदिरा गांधी और प्रणब मुखर्जी की कृपादृष्टि में हुई। गौतम अदाणी ने गुजरात में 1990 के दशक में जब बिजनेस शुरू किया तो कांग्रेस समर्थित चिमनभाई पटेल सरकार ने उन्हें सस्ती जमीन दी। वास्तव में अंबानी और अदाणी, दोनों ही कई अन्य बिजनेस घरानों की तरह कांग्रेस के लाइसेंस-परमिट राज की राजनीति के पुराने दौर के लाभार्थी रहे हैं।

और फिर भी, अब देश के दो सबसे अमीर व्यापार समूहों को खुद को राजनीतिक विवाद से बचाने में परेशानी हो रही है। अचानक क्या बदल गया? सबसे पहले, मीडिया परिदृश्य इस तरह बदला है कि खेल के नियम बदल चुके हैं। आज मल्टी-मीडिया की दुनिया में, जहां ढेरों प्लेटफॉर्म हैं, स्टोरीलाइन को ‘नियंत्रित’ करना नामुमकिन ही है। सरकार की प्रोपेगैंडा मशीन को अब नागरिक सक्रियता का सामना करना पड़ रहा है, जहां छिपने की कोई जगह नहीं है। वायरल वीडियो में अब सच और प्रचार के बीच की रेखा धुंधली पड़ गई है। यहां तक कि सबसे ज्यादा शक्तिशाली बिजनेस भी जनता के गुस्से के बंधक हैं, जिसे शोरगुल वाला मीडिया ईको-सिस्टम बढ़ावा देता है।

दूसरा, जब लड़ाई को ‘किसान’ बनाम उद्योग और उनके राजनीतिक संरक्षक के रूप में पेश किया जाए, तो एक ही विजेता हो सकता है। किसान आंदोलन को एक सीमा तक ही बुरा बता सकते हैं। ठंड से कांपते अन्नदाता के सामने जब भारत के अमीरों की विलासितापूर्ण जीवनशैली की छवि दिखाते हैं, तो यह अन्याय का भाव देने के लिए पर्याप्त है। तर्क पर भावनात्मक प्रतिक्रिया हावी हो जाती है। अदाणी-अंबानी प्रधानमंत्री के गृहराज्य गुजरात से हैं, यह बात इस अवधारणा को मजबूत करती है कि उन्हें सत्ता से नजदीकी का लाभ मिलता है।

अंत में, वास्तविकता यह भी है कि पिछले दशक में कुछ भारतीय अरबपति व्यापार समूहों कि संपत्ति बेतहाशा बढ़ी है, जबकि ज्यादातर भारतीयों का आय स्तर मंदी के दौर में मुश्किल में ही रहा। कुछ उद्योगपतियों का टेलीकॉम, पेट्रोलियम, पोर्ट व एयरपोर्ट जैसे लाभप्रद क्षेत्रों में लगभग पूरा प्रभुत्व होने से असमान आर्थिक परिदृश्य उभरकर आता है, जिसमें निष्पक्ष नियामक प्रणाली नहीं होती। सामान्य दौर में इसे नजरअंदाज कर दिया जाता, लेकिन कोरोना के दौर में, जहां नौकरियां जा रही हैं, भविष्य अनिश्चित है, विकास रुका हुआ है, वहां कुछ लोगों को मिल रहे असंगत लाभ पर बेचैनी की भावना है।

इस तरह, अंबानी-अदाणी के खिलाफ किसान आंदोलन कितना ही अस्पष्ट क्यों न हो, यह उभरते बाजार एकाधिकार के प्रति व्यापक असंतोष का प्रतीक है। कृषि सुधारों के लागत लाभ विश्लेषण पर ध्यान देने की जगह उद्योगपतियों को बदनाम करने की राजनीति पुनर्जीवित हो गई है। वर्ष 2014 में मोदी ने राजनीतिक भ्रष्टाचार को हटाने के वादे पर जीत हासिल की थी।

तब ‘ना खाऊंगा, ना खाने दूंगा’ का नारा हर जगह था, जिसने लाखों भारतीयों को खींचा, जो घोटालों में डूबी यूपीए सरकार से नाराज थे। मोदी कुशलता से अपनी व्यक्तिगत छवि को लगभग ज्यों का त्यों बनाए रखने में सफल रहे हैं लेकिन उद्योगपतियों से घनिष्ठता के आरोपों से छुटकारा पाना अभी बाकी है। वरना सिंधु बॉर्डर पर बह रही हल्की हवा और तेज हो सकती है।

राजदीप सरदेसाई
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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