कृषि बिल वक्त की जरूरत

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संसद में हाल ही में पारित कृषि बिल निश्चित ही प्रकृति से उग्र सुधारवादी हैं। इनका उद्देश्य उस मौजूदा व्यवस्था में सुधार लाना है, जिसके तहत किसान को उसकी उपज मंडी में सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचनी पड़ती है। अब किसान निजी कंपनियों के साथ करार कर सकेगा या उनको अपनी फसल बेच सकेगा। कुछ लोग किसानों को उनकी फसल को एमएसपी पर बेचने को मनमानी मानते हैं, जबकि अन्य इसे एक सुरक्षा तंत्र समझते हैं, जहां पर किसान को कम से कम न्यूनतम मूल्य का आश्वासन तो होता है। यही वजह है कि बिल पर ध्रुवीकृत प्रतिक्रियाएं आई हैं। भारत के पास दुनिया में कृषि का पावरहाउस बनने की भारी क्षमता है। दुनिया के तमाम देशों के प्रमुख शहरों में सुपरमार्केट दूध, चीज, मक्खन, सब्जियों और पोल्ट्री का दूरस्थ देशों से लाकर भंडारण करते हैं। थाईलैंड और ऑस्ट्रेलिया दुनिया में बड़े पैमाने पर कृषि उत्पादों की आपूर्ति करते हैं, लेकिन भारत नहीं। पश्चिम में पीनट बटर एक अनिवार्य चीज है। भारत के अनेक हिस्सों में बड़ी मात्रा में मूंगफली उगाई जाती है, लेकिन हम पीनट बटर का निर्यात नहीं करते हैं। हम अपने किसान को इस तरह के व्यापार की अनुमति नहीं देते हैं।

भारतीय शहरी मध्यम वर्ग भोजन की कीमतों को कम करता है और इसीलिए किसान से सहानुभूति हो, लेकिन उसे मुक्त बाजार नहीं मिले। सरकार इस नीति में पूरी तरह शामिल रही है। उसने सुनिश्चित किया कि किसान जिंदा तो रहे पर कभी फले-फूले नहीं। इन कृषि बिलों से लंबी अवधि में देश के कृषि क्षेत्र में भारी ग्रोथ हो सकती है। इसके लिए हमें निजी क्षेत्र की जरूरत होगी, जो पूंजी लगाएंगे, खरीदारों में प्रतिस्पर्धा व ब्रांडिंग के साथ ही इस सेक्टर में कई अवसर पैदा होंगे। इसका मतलब यह नहीं है कि नए कृषि बिल को लेकर कोई समस्या नहीं है या इन बिलों के पास होने के बाद सब कुछ अत्यंत आसान हो गया है। कुछ वास्तविक चिंताएं हैं और ये तीन व्यापक श्रेणियों से जुड़ी हैं।पहला किसान और ताकतवर खरीदार के बीच शक्ति का अंतर। कृषि में निजी सौदों और करार की अनुमति तो ठीक है, लेकिन एक कमजोर किसान अच्छी कीमत के लिए सौदेबाजी नहीं कर सकता। इसका एकमात्र तरीका किसी तरह का शक्ति संतुलन बनाना हो सकता है और यह किसानों की सामूहिकता से आ सकता है। किसानों की तरफ से उनकी यूनियनें या उनके अधिकार को सुनिश्चित करने वाले लोग सौदेबाजी करें। इस पर तमाम राज्य सरकारों को अब ध्यान देना चाहिए। शक्ति के अंतर का समाधान किसान की ताकत को बढ़ाने के लिए हो न कि उसे आने वाली पीढ़ियों तक सरकार के चंगुल में रखकर उसका विकास रोकने के लिए। दूसरी चिंता क्रियान्वयन पर सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड को लेकर है।

अब तक ऐसा हुआ है कि महान इरादा, निर्णायक घोषणा और चारों ओर प्रशंसा के बाद भी उसे लागू करने में अनेक समस्याएं रही हैं। इसे ठीक करने की जरूरत है। हालांकि, इस सरकार की हर घोषणा के बाद उसकी इतनी तारीफ की जाती है कि लागू करने से संबंधित कोई भी दिक्कत नजरअंदाज हो जाती है। इसी वजह से एक साल या उससे अधिक समय से जितनी शानदार घोषणाएं रहीं, उनका क्रियान्वयन वैसा नहीं रहा। कृषि बिल का भी यह हश्र हो सकता है। लेकिन, इस बार इससे करोड़ों लोगों की आजीविका जुड़ी है। अगर इसमें त्रुटि हुई तो यह वास्तव में बहुत गलत हो जाएगा। इसलिए ऐसा होने देने की बजाय बेहतर होगा कि ईमानदारी से समस्याओं को पहचाना जाए। इसके बाद इन्हें न्यूनतम करने के लिए कदम उठाए जाएं। इसके लिए चापलूसों की आवाज को धीमा किया जाए और बेहतर होगा कि उचित फीडबैक की आवाज को बढ़ाया जाए। कृषि बिल की आखिरी समस्या किसान कल्याण व शहरी मध्यम वर्ग द्वारा कृषि उत्पादों के लिए दी जाने वाली कीमत का विरोधाभास है।

शहरी मध्यम वर्ग चाहता है कि कीमतें कम रहें। इसलिए अगर हम किसान को विकल्प दे रहे हैं और वह अपने उत्पाद को बेहतर कीमत के लिए जयपुर की बजाय यूरोप में बेचना चाहता है तो क्या भारतीय इससे सहमत होंगे? इस बिल की वजह से आने वाले समय में यह विरोधाभास एक प्रमुख समस्या बन सकता है। सरकार को इस खतरनाक संतुलन को बेहतर तरीके से संभालना होगा। संभवतया एक उच्चतम सीमा और फ्लोर प्राइसिंग की व्यवस्था हो सकती है ताकि मुक्त बाजार में हमें राहत मिले। भारतीय किसान के विकास के लिए कृषि बिल एक जरूरी कदम है। हमारे किसानों को भी वैश्वीकरण का लाभ मिलना चाहिए। ये बिल भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने की ओर उठाया गया कदम है, जो वक्त की जरूरत है। ये किसान को अधिक विकल्प देते हैं कि वे अपनी फसल कैसे बेचें और अगर इसे सही से लागू किया गया तो इससे उनका रिटर्न भी बढ़ेगा। हमारे किसानों को हमेशा लोगों से सम्मान और सहानुभूति मिली है। इस समय उनको कुछ और भी मिला है, जो है- विकल्प।

चेतन भगत
(लेखक अंग्रेजी के उपन्यासकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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