कंग्रेस से एक अच्छी बात निकल कर आई है। कपिल सिब्बल के इस बयान ने कांग्रेस में खलबली मचा दी थी कि राज्य सरकारें नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू करने से इनकार नहीं कर सकती। अब कांग्रेस से सुलझा हुआ बयान आया है कि नागरिकता संशोधन क़ानून की वैधता साबित होने तक राज्य सरकारों को क़ानून लागू करने को बाध्य नहीं किया जा सकता। हालांकि सुप्रीमकोर्ट ने क़ानून लागू करने पर कोई स्टे नहीं दिया है , सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस का बयान भी क़ानून के खिलाफ नहीं आया है , लेकिन कांग्रेस का यह स्टेंड जायज है। अगर यह तार्किक स्टेंड वह पहले ही लेती तो देश में इतना तनाव नहीं बनता , जितना अब बन गया है। कांग्रेस से ही एक जिमेदार दल होने की उम्मींद की जा सकती है। लगता है कि कांग्रेस का एक समझदार वर्ग वामपंथियों की देश को तोडऩे वाली साजिश से वाकिफ हुआ है , तभी कुछ समझदारी की बातें की जा रही हैं। क़ानून में भारतीय मुस्लिम नागरिकों के खिलाफ कुछ भी न होने के बावजूद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिलिया के वामपंथी मुस्लिम छात्रों के सडकों पर आ कर विरोध करने के पीछे कौन काम कर रहा है , कांग्रेस को यह पहले दिन से ही समझना चाहिए था।
अगर वह इसे समझती तो संसदीय लोकतंत्र की म्रर्यादा के अनुकूल व्यवहार करती। केरल में वामपंथियों के दबाव में संसद से पारित क़ानून के खिलाफ प्रस्ताव पास करना असंवैधानिक शुरुआत थी। जिसे बाद में पंजाब ने आगे बढाया है और अब कांग्रेस और अन्य गैर राजग दल भी आगे बधा कर सुप्रीमकोर्ट पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जो लोकतंत्र और देश के संघात्मक ढाँचे के लिए खतरनाक संकेत हैं। कांग्रेस को यह समझना चाहिए था कि भारत-अमेरिका की परमाणु संधि के बाद से वामपंथी चीन के इशारे पर देश को तोडऩे की साजिश पर काम कर रहे हैं। इस लिए वामपंथी दलों के छात्र संगठन संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु की बरसी मनाते हैं और नक्सलियों की ओर से 77 पुलिस कर्मियों की हत्या पर जश्न मनाते हैं। देश को अस्थिर करने के लिए पिछले पांच साल से वामपंथी मुस्लिमों और दलितों को समाज की एकता तोडऩे के लिए भडका रहे हैं। दलितों के मन में स्वर्ण हिन्दुओं के खिलाफ इतना जहर कभी नहीं भरा गया , जितना पिछले पांच साल से भरा गया है।
परमाणु समझौते के बाद अलग थलग पड़े वामपंथियों ने समाज की एकता तोडऩे की साजिश रची , जिस के लिए उन्होंने अपने अंतिम गढ़ जेएनयू का भरपूर इस्तेमाल किया। कोई भी मामूली रिसर्च के बाद इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि सोशल मीडिया पर पिछले एक दशक से चल रहे भीम-मीम के नारे के पीछे वामपंथियों का दिमाग काम कर रहा है। जेएनयू में अफजल गुरु की बरसी मनाना और उस मौके पर भारत तोड़ो के नारे लगाना , हैदराबाद के रोहित वेमूला आत्महत्या केस झूठ-मूठ का राष्ट्रीय मुद्दा बनाना , भीमाकोरेगांव के बाद अब शाहीन बाग़ के धरने के पीछे एक ही शक्ति काम कर रही है। नागरिकता संशोधन क़ानून को भी उन्होंने मुसलमानों के मन में अलगाववाद का बीज बोने के लिए इस्तेमाल किया। वैसे राजनीतिक दलों में सत्ता की भूख इतनी बढ़ गई है कि सत्ता के माध्यम से देश और समाज की तरक्की का प्रमुख लोकतांत्रिक उद्देश्य बहुत पीछे छूट गया है।
फिर भी जब देश और समाज की एकता का सवाल हो तो कांग्रेस से देश की जनता की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा हैं। सत्ता ही सब कुछ नहीं होती , देश की एकता और अखंडता के लिए सकारात्मक सोच भी होनी चाहिए। इस सोच के अभाव के कारण कश्मीर , ट्रिपल तलाक और अयोध्या के मुद्दे पर कितने ही पुराने सांसद कांग्रेस छोड़ कर चले गए। देश की एकता बनाए रखने के लिए इस साजिश को जहां कांग्रेस को समझना चाहिए वहीं नरेंद्र मोदी और अमित शाह को भी समझना चाहिए कि वे वामपंथियों के भीम-मीन एजेंडे को विफल बनाने के लिए दलितों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए अपनी पार्टी और सत्ता में उनकी भागेदारी को सुनिश्चित करें। देश भर में आरक्षित सभी पदों को एक साल के भीतर भरा जाना चाहिए ताकि कोई बरगला कर दलितों को अपनी तुच्छ राजनीति के लिए इस्तेमाल न कर सके।
अजय सेतिया
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)