कांग्रेस पार्टी में इन दिनों प्रभावी विपक्ष बनने की बहस चल रही है। कांग्रेस के 23 नेताओं ने 23 अगस्त को एक चिट्ठी सोनिया गांधी को लिखी थी, जिसमें कहा गया था कि कांग्रेस प्रभावी विपक्ष की भूमिका नहीं निभा पा रही है। फिर अभी बिहार विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा तो बागी तेवर दिखाने के लिए तैयार बैठे कपिल सिबल ने कहा कि कांग्रेस प्रभावी विपक्ष की भूमिका नहीं निभा रही है। अब सवाल है कि प्रभावी विपक्ष क्या होता है क्या उसकी भूमिका कैसे निभाई जाती है? क्या 2014 में नरेंद्र मोदी के केंद्र सरकार में आने से पहले जब दस साल तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और कपिल सिबल उस सरकार में मंत्री थे, तब भारतीय जनता पार्टी प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभा रही थी? पूरे दस साल तक भाजपा भी वैसे काम कर रही थी, जैसे आज कांग्रेस कर रही है। तब भाजपा के नेता प्रेस कांफ्रेंस करते थे और विपक्ष की भूमिका पूरी हो जाती थी। संसद की कार्रवाई चल रही होती तो किसी मसले पर वे संसद में हंगामा करते थे और सदन से वाकआउट कर जाते थे।
इसके अलावा ध्यान नहीं आता है कि भाजपा ने कोई बड़ा आंदोलन खड़ा किया। उलटे पूरे दस साल तक भाजपा के नेता आपस में ही लड़ते रहे थे। लालकृष्ण आडवाणी ने पाकिस्तान जाकर जिन्ना को सेकुलर कह दिया था तो कई महीने तक मुहिम चला कर उनको हटाया गया। फिर राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने तो आडवाणी के करीबी चार नेताओं का समूह उनको फेल करने में लगा रहा। सो, जब दस साल तक कांग्रेस का राज था तब भी भाजपा अपने में ही उलझी हुई थी और वह कोई महान विपक्ष की भूमिका नहीं निभा रही थी, जबकि उसका विपक्ष में रहना का लंबा अनुभव है। इन मसलों पर भी आंदोलन इंडिया अगेंस्ट करप्शन नाम से संस्था बना कर अरविंद केजरीवाल ने किया। वे अन्ना हजारे को महाराष्ट्र से लेकर आए और दिल्ली में आंदोलन कराया। उस आंदोलन का फायदा बैठे बिठाए भाजपा को मिला और आम आदमी पार्टी को भी मिला। सो, भारत में कभी जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टियां होती थीं, जो प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाती थीं। अब कोई पार्टी प्रभावी विपक्ष की भूमिका नहीं निभाती है। यह भी हैरान करने वाली हकीकत है कि कांग्रेस पार्टी के नए नेता किसी मसले पर स्टैंड नहीं लेते हैं।
वे अपनी राय जाहिर नहीं करते हैं। यह काम अभी तक पार्टी के पुराने नेताओं के ही जिमे है। हालांकि उन्हें भी किसी ने इसकी जिम्मेदारी नहीं दी है पर वे अपनी जिम्मेदारी समझते हैं तो जरूरी मौकों पर बयान देते हैं। जैसे अभी ‘लव जिहाद’ को लेकर बनाए जा रहे कानूनों के खिलाफ राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बयान दिया। उन्होंने कहा कि इस तरह की कोई चीज नहीं होती है, यह भाजपा ने ईजाद किया है, जिसका मकसद देश के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाना है। गहलोत ने इस पर बयान दिया, लेकिन कांग्रेस के तमाम क्रांतिकारी नेता, जिनको नेतृत्व बदलने की फिक्र है, वे चुप रहे। चाहे सरकारी कंपनियों की बिक्री का मामला हो या कृषि कानूनों का मामला हो, हर बार पार्टी के पुराने नेता आगे बढ़ कर कमान संभालते दिखते हैं। कैप्टेन अमरिंदर सिंह से लेकर अशोक गहलोत, भूपेश बघेल क्या दिग्विजय सिंह ही इन मसलों पर बोलते हैं। पार्टी के नए नेता चुपचाप अपनी सोशलाइट एक्टिविटी में बिजी रहते हैं। वे चाहें तो ट्विटर पर आंदोलन खड़ा कर सकते हैं, लेकिन वह काम भी अकेले राहुल गांधी के जिमे है। असल में कांग्रेस के तमाम नए नेता किसी न किसी पृष्ठभूमि वाले हैं इसलिए उनका राजनीतिक प्रशिक्षण नहीं है। उन्होंने सीधे सत्ता देखी है। जमीनी राजनीति नहीं की।