कश्मीर है इतिहास की सच्चाई!

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डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने कल क़ॉलम में लिखा कि भारत और पाकिस्तान, दोनों को अपना ढोंग खत्म करना चाहिए। दोनों को एक-दूसरे के कश्मीरों पर कब्जे की बात भूल जाना चाहिए। मैं विचार-भिन्नता, विचार स्वतंत्रता में विश्वास रखता हूं मगर डॉ. वैदिक की इस दलील से असहमति में यह पूछना जरूरी है कि यदि भारत ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को नहीं छुड़ाया, उलटे उसे पाकिस्तान का वैधानिक हिस्सा माना तो क्या वह पाकिस्तान के 1947 के उस स्टैंड को सही ठहराना नहीं होगा कि भारत में जम्मू-कश्मीर का विलय वैधानिक नहीं था। हम जब दुनिया के आगे, संयुक्त राष्ट्र में जम्मू-कश्मीर का भारत में वैधानिक विलय बताते रहे हैं तो जम्मू-कश्मीर के दो हिस्सों में बंटवारे का दुनिया में कैसा अर्थ निकलेगा? तब कश्मीर घाटी के मुसलमान क्या कहते मिलेंगे? दुनिया में कथित एटमी ताकत वाला भारत कैसा पप्पू माना जाएगा? पाकिस्तान कैसा शेर हुआ होगा? जिहादी तत्व क्या बाकी कश्मीर को कब्जाने को प्रेरित नहीं होंगे?

एक मायने में जम्मू-कश्मीर दोनों देशों के लिए जीवन-मरण, अस्तित्व का बिंदु, धर्म की पताका था, है और रहेगा? पाकिस्तान 35 प्रतिशत जम्मू-कश्मीर पर कब्जा कर 72 सालों से भारत राष्ट्र-राज्य का छकाता हुआ पदा रहा है। पाकिस्तान की तरफ से, इस्लामाबाद के नियंताओं की तरफ से कभी यह बात, संकेत, खबर नहीं मिली कि आप अपना कश्मीर संभालें और हम अपना कश्मीर। अपनी पुरानी थीसिस थी, है और रहेगी कि पाकिस्तान धर्म की उस इतिहास ग्रंथि में बना देश है, जिसे याद है कि सैकड़ों साल दिल्ली में उसके पूर्वजों का, उसके इस्लाम का राज था। याद रहे जिन्ना और मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान बनने के बाद चैन नहीं लिया था। तुरंत जम्मू-कश्मीर की हिंदू रियासत पर कबाइलियों को कब्जा करने के लिए दौड़ाया तो इस मिशन भाव में कि मौका है श्रीनगर पर कब्जा करो।

इतिहास में लड़ाई स्थायी है तभी पिछले 72 वर्ष भी निरंतर लड़ाई में गुजरे हैं। मतलब पश्चिम दिशा से सतत आक्रमण और नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी नाम के तमाम प्रधानमंत्रियों की दुनिया से चोरी-छुपे विनती की सचाई कि हमलावर पाकिस्तान को रोकें। मदद करें। मध्यस्थ बनें, पंच बनें!

सोचें, पंडित नेहरू के संयुक्त राष्ट्र में जाने से ले कर नरेंद्र मोदी के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से बात करने के तमाम अनुभवों का कोर बिंदु क्या है? जवाब यह कि पाकिस्तान हमलावर है। आंतकी छाया युद्ध छेड़े हुए है। आंतकियों-अलगाववादियों का सरंक्षक है। वाजपेयी के वक्त बिल क्लिंटन ने बीच-बचाव किया तो नरेंद्र मोदी के वक्त डोनाल्ड ट्रंप का रोल बना। जबकि 72 सालों से हम यह मुगालता पाले हुए हैं कि पाकिस्तान बरबाद देश है। दिवालिया और खत्म देश है।

पर यदि ऐसा होता तो क्या पाकिस्तान का समर्पण हुआ नहीं होता? भारत क्या पाक अधिकृत कश्मीर छुड़वा नहीं लेता? हम जीते फिर भी पाकिस्तान को दबा कर उससे कब्जाया इलाका नहीं छुड़वाया। क्यों?

मोटे तौर पर वजह हिंदू डीएनए है। इतिहास की यह भी हकीकत है कि दिल्ली का कोई हिंदू राजा, कभी यह निश्चय लिए हुए नहीं हुआ कि दुश्मन ने यदि दिल्ली तक आ कर मारा तो हम मध्य एशिया में घुस कर मारें। उलटे यह प्रवृति रही कि दुश्मन ने पंजाब कब्जा लिया है तो कोई बात नहीं, संधि-समझौता कर वह पंजाब संभाले और हम अपना इलाका। 1947 के बाद पाकिस्तान ने कबाइली भेज जम्मू-कश्मीर पर कब्जा चाहा, अपनी सेना ने उन्हें खदेड़ा लेकिन पंडित नेहरू ने पीछे हटते हुए कबाइलियों के पीछे अपने सैनिकों को यह टारगेट नहीं दिया कि इन्हे पाकिस्तान की सीमा पार खदेड़ना है। फिर 1965 में मौका था। भारतीय सेना का पश्चिमी पाकिस्तान में कब्जा बना। तब मजे से शर्त बन सकती थी कि पाकिस्तान कश्मीर इलाका छोड़े तो हम पश्चिम पाकिस्तानी इलाके से हटेंगे। लेकिन हम बिना शर्त, सौदे के ही हट गए। 1971 में पाकिस्तानी सेना के समर्पण से भी ऐसा दबाव बनता था। कारगिल के वक्त वाजपेयी सरकार ने पाकिस्तान के हमले-उसके कब्जे को सैनिक अभियान से खत्म करवाया लेकिन पाकिस्तान पर यह दबाव नहीं बनाया कि हम तब तक अपनी सेना को नहीं रोकेंगे जब तक इलाके विशेष की पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर की सीमा से पार पाकिस्तानी सेना न चली जाए।

क्या गजब बात है कि हम नियंत्रण रेखा के अनुशासन में बंधे रहे जबकि पाकिस्तान ने इसका बार-बार उल्लंघन किया और आंतकियों से भी कराता रहा।

सो, अर्थ है कि जम्मू-कश्मीर पर समझौता संभव नहीं है। इस्लाम का झंडा ढोंग लिए हुए नहीं है। उसके लक्ष्य थे, हैं और रहेंगे। भुट्टो ने घास खा कर हजार साल लड़ने की बात कही हुई है तो भारत राष्ट्र-राज्य के लिए पश्चिम की दिशा वह सत्य है, जिससे हजार साल गुलामी झेली है। उस हकीकत को आज मोमबत्ती जला कर या ले-दे कर समझौते से नहीं बदला जा सकता। जम्मू-कश्मीर से ही तय होगा कि भविष्य में भारत साबुत रहता है या नहीं? तभी धारा 370 व 35ए को खत्म कर जम्मू-कश्मीर को भारत का सहज प्रदेश बनाना, जहां अनिवार्य जरूरत है वहीं कश्मीरियत जैसे जुमलों को भारतीयता से अलग या ऊपर बनाना आत्मघाती है। देश और राष्ट्र-राज्य की रीति-नीति इस सच्चाई में ही ढली होनी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर भारत और पाकिस्तान दोनों के अस्तित्व का यदि तोता है तो उसे छोड़ने, बांटने या स्वतंत्र-स्वायत्त बना देना समाधान नहीं है।

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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