कश्मीर से अनुच्छेद 370 व 35-ए हाटाने जाने के सवाल पर तुर्की के राष्ट्रपति के विवादित बोल को लेकर भारत ने सत ऐतराज जताया है। कहा है कि किसी को भी भारत के अंतरिक मसले पर दखलंदाजी का कोई अधिकार नहीं। अच्छा हो तुर्की अपनी अंतरिक समस्याओं और चुनौतियों पर ध्यान दे। बीते दिनों पाकिस्तान की संसद में तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगेन ने कश्मीर का मसला उठाते हुए इसे अपनी समस्या के तौर पर रेखांकित किया था और हरकदम पर साथ देने का भरोसा दिलाया था। वैसे यह पहला मौका नहीं है, यूएनओ में भी कश्मीर पर उसकी तरफ से अपत्ति दर्ज कराई जा चुकी है। तुर्की की कोशिश मुस्लिम मुबालिग का लीडर बनने की है। एर्दोगेन उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। यही वजह है कि वह कश्मीर को इस्लामी नजरिये से देखते हैं। यही हरकत मलेशिया ने भी कि थी। उससे पाम आयल की खरीद रोक कर भारत ने सबक सिखाया था। तुर्की के बारे में सरकार को कुछ इसी तरह से सत कदम उठाने होंगे ताकि दोतरफा मसलों पर किसी अन्य देश का इस कदर साहस न बढ़े।
देश के भीतर बाहर भारत सरकार ने कश्मीर मसले को आन्तरिक बताते हुए यह साफ कर दिया है कि संसद से पारित निर्णय से पीछे हटने का कोई सवाल नहीं उठता। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यही बात दोहराई। अपने काशी दौरे में उन्होंने साफ कहा है कि कश्मीर का मसला हो या नागरिकता कानून का इसमें तनिक भी बदलाव नहीं हो सकता। जहां तक कश्मीर के पूरी तरह समान्य होने की बात तो इसमें वक्त लगेगा। यह थोड़ा लम्बा भी हो सकता है। बीते 70 साल से कश्मीर में आंतक की नर्सरी फल-फूल रही थी, लोग 370 को लेकर एक अवास्तविकता में जी रहे थे और उन्हें भारत सरकार के खिलाफ तैयार किया जाता रहा है। अब यह बरसों के जहर की काट विकास रास्ते ही बेअसर होगी। इसीलिये केन्द्र सरकार विशेष फोकस राज्य में युवाओं को रोजगार देने तथा राष्ट्र के मुय धारा में लाने पर है। लाखों डालर की विकास योजनाएं राज्य की जरूरतों के हिसाब से तैयार की गयी हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भी गांव स्तर के लोगों की पंचायतों के माध्यम से सीधी भागीदारी हो रही है।
आम लोगों की हिस्सेदारी से वास्तविक लोकतंत्र की जड़ें जब मजबूत होगी तो देश विरोधी भावनाओं को खाद-पानी देने वाले समूहों की ताकत घटेगी और तब, अभी जो शुरू हुआ है, उसका प्रभाव दिखना शुरू होगा। इसके लिए जाहिर है, पाबंदियों में धीरे-धीरे ढील दी जा रही है। कई विदेशी सांसदों, राजनयिकों का कश्मीर दौरा हो चुका है। सबने जारी सख्ती के बीच एक आरामदायक बदलाव की आहट महसूस की है। यही कुछ देश के भीतर ऐसे नेता समूह, जो मसले को लटकाये रहना चाहते थे, अब समाधान की कोशिशों को हर संभव पलीता लगाने की कोशिश करते आ रहे हैं। भीतर राजनीतिक अन्तर्विरोध से हर मोर्चे पर नाकाम पड़ोसी देश पाकिस्तान को जरूर थोड़ी ताकत शोर-शराबा करने के लिए मिल रही है। तुर्की और मलेशिया जैसे देश भी इस मुहिम का हिस्सा बनकर अपनी इस्लामिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहते हैं।
संयुक्त अरब अमीरात एक तरह से अब भी मुस्लिम देशों का रहनुमा है। उसके वर्चस्व को इसी बहाने चुनौती देने की एक कोशिश भी इस पूरी पहल में दिखाई देती है। हालांकि पाकिस्तान की आर्थिक हालत ऐसी नहीं है कि वह सीधे तौर पर भारत को चुनौती दे सके। उसे यह भी पता है कि आतंकवाद कको पालने-पोसने की उसकी राज्य नीति आर्थिक बदहाली की तरफ धकेल रही हैं चीन भी एक सीमा तक आर्थिक मदद दे सकता है। विश्व बैंक और आईएमएफ से कर्ज के लिए उसे पाक-साफ दिखना पड़ेगा। वैसे दिखाने की गरज से उसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित आतंकी हाफि ज सईद को 11 साल की सजा सुनाई गयी है ताकि अंतर्राष्ट्रीय फंडिंग पर से रोक हट सके। इस सबके बीच कश्मीर को लेकर राग अलापना उसकी राजनीतिक मजबूरी भी है। लिहाजा इस पर बहुत केन्द्रित होने की जरूरत नहीं है।