कर्म बांधता है, धर्म मुक्त करता है

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क्या मुक्ति का अनुभव करने के लिए कोई विशेष काम करने की जरूरत है…वो कौन सी युक्ति है जिससे सभी काम मुक्ति का अनुभव दिला सकते हैं?

दिन भर के कामों में हम उलझ सकते हैं या फिर अपने अंदर मुक्ति का अनुभव कर सकते हैं। क्या मुक्ति का अनुभव करने के लिए कोई विशेष काम करने की जरुरत है…वो कौन-सी युक्ति है जिससे सभी काम मुक्ति का अनुभव दिला सकते हैं?

सद्गुरु, मेरा प्रश्न अध्याय – 2 के श्लोक 47 से संबंधित है, जो गीता का सबसे मशहूर श्लोक है और जिसे गीता का सार भी माना जाता है। इस श्लोक में फल की इच्छा किए बिना कर्म क रते रहने की बात कही गई है।

एक योद्धा होने के नाते तुम उन सभी कर्मों को करने के योग्य हो, जिसकी अपेक्षा किसी योद्धा से की जा सकती है। लेकिन तुम अपने कार्यों के परिणाम स्वरूप किसी भी तरह का लाभ उठाने के अधिकारी नहीं हो। साथ ही तुम कर्म नहीं करने के अधिकारी भी नहीं हो, यानी कर्म न करना तुम्हारे वश में नहीं है। इसलिए तुम्हें कर्म-फल की इच्छा किए बगैर अपनी स्थिति के अनुसार कर्म करना चाहिए। कर्म बहुत जरुरी है। यहां तक कि अगर आप चाहें तो भी कर्म करने से खुद को रोक नहीं सकते। कर्म से मतलब सिर्फ शारीरिक क्रिया से ही नहीं है। आप शरीर से कर्म करते हैं, मन से कर्म करते हैं, अपनी भावना से कर्म करते हैं, यहां तक कि आप अपनी ऊर्जा के स्तर पर भी कर्म करते हैं। हर वक्त आप शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक क्रियाएं करते रहते हैं। कर्म अनिवार्य है। किसी भी हालत में कर्म तो आपको करना ही है, चाहे आप आराम ही क्यों न कर रहे हों। आराम के दौरान भी आप अपने मन या भावना में कुछ न कुछ कर ही रहे होते हैं।

क्या आपको लगता है कि आपके भीतर कर्म न करने की क्षमता है? चाहे कर्म करने की आपकी इच्छा हो या न हो, आप किसी न किसी रूप में कर्म कर ही रहे होते हैं। लेकिन होता यह है कि लोग पूरे दिन जो भी काम करते हैं, उनमें से ज्यादातर कर्म फल की इच्छा द्वारा संचालित होते हैं। आमतौर पर लोगों के मन में बड़े पैमाने पर यही चल रहा होता है कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, उससे उन्हें क्या मिलेगा। कृष्ण इस श्लोक में कह रहे हैं कि इस तरह से जीना व्यर्थ है, क्योंकि अगर आप परिणाम को ध्यान में रखकर कोई भी काम करते हैं, तो वह क्रियाकलाप आपका कर्म बन जाता है और आपके बंधन का कारण बनता है। दूसरी तरफ यदि आप अपने लाभ के बारे में सोचे बिना कोई काम कर रहे हैं यानी आप उसे सिर्फ इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उसे किए जाने की जरूरत है, तो ऐसी स्थिति में वही क्रियाक लाप धर्म बन जाता है। यहां धर्म का मतलब कर्तव्य समझा जाता है, हालांकि यह पूरी तरह से कर्तव्य नहीं है। क्योंकि क र्तव्य शब्द अपने आप में बहुत सीमित है, जबकि धर्म, कर्तव्य से कहीं ज्यादा व्यापक अर्थ रखता है। धर्म और कर्म में केवल एक ही अंतर है। धर्म मुक्त करता है, जबकि कर्म बंधन पैदा करता है। तो कर्म तो अनिवार्य है।

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