स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आचार्य विनोबा भावे की माता रुमिणी बाई थीं। उनकी माता बड़ी उदार मन वाली महिला थीं। वह अपने घर में जरूरतमंद विद्यार्थियों को रखती थीं। उनके खाने-पीने की व्यवस्था भी खुद ही करती थीं, साथ ही और भी जो मदद हो सकती थी, वह करती थीं। रुमिणी बाई अपनी संतानों में और घर में रह रहे जरूरतमंद बच्चों में कभी भी भेदभाव नहीं करती थीं। रुमिणी बाई ने कभी भी अपने-पराए का भेद नहीं किया। रोज सभी बच्चों को ताजा और गर्म खाना देती थीं। ठंडी यानी बची हुई बासी रोटियां किसी विद्यार्थी को नहीं खिलाती थीं।
एक दिन विनोबा ने अपनी मां से कहा, ‘मां, आपसे हमेशा सुनता हूं कि भगवान एक है। सबके भीतर वास करता है। इसीलिए किसी से भेदभाव नहीं करना चाहिए, लेकिन मैंने देखा है, मां तुम भेदभाव करती हो। जिन विद्यार्थियों को तुमने घर में रखा है, उन्हें तुम बहुत ताजी रोटियां देती हो, लेकिन जब रोटियां बच जाती हैं, बासी हो जाती हैं, तब वह रोटियां तुम मुझे दे देती हो। ऐसा भेदभाव यों?’ माता ने अपने बेटे से कहा, ‘बेटा, तूने ठीक कहा। मैं करती हूं भेदभाव, योंकि मेरे अंदर अभी भी मोह है।
मुझे उन बच्चों में परमात्मा दिखाई देते हैं, लेकिन तुझमें मुझे मेरा बेटा ही दिखता है। जिस दिन मैं तुझमें भी परमात्मा देखने लगूंगी, उस दिन से तुझे भी गर्म और ताजी रोटियां मिलेंगी।’ सीख : एक मां ने अपने बेटे के माध्यम से हमें ये संदेश दिया है कि हर एक इंसान में परमात्मा रहते हैं, लेकिन हम भेदभाव करते हैं, ये हमारा है और वो पराया है। इस भेदभाव को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। जब हम ये बात समझ लेंगे कि हर इंसान में भगवान हैं तो दूसरों के साथ हमारा व्यवहार बदल जाएगा। हम इंसानों के साथ भी वही व्यवहार करने लगेंगे जो भगवान के साथ करते हैं।
लेखक – पं विजय शंकर मेहता