कब तक नहीं मानना चाहिए कि हम सफल हो गए हैं?

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काफी लोग किसी काम में बहुत मेहनत करते हैं और जब अंतिम चरण में होते हैं तब छोटी सी लापरवाही हो जाती है और पूरी मेहनत बर्बाद हो जाती है। इसीलिए जब तक हमारा काम पूरा न हो जाए, तब तक जरा सी भी लापरवाही नहीं होने देना चाहिए। संत कबीर ने एक दोहे में बताया है कि हमें कब तक नहीं मानना चाहिए कि हम सफल हो गए है…

कबीर कह गए हैं कि
पकी खेती देखिके, गरब किया किसान।
अजुहूं झोला बहुत है, घर आवै तब जान।।

इस दोहे में अजहूं झोला, शब्द आया है। झोला शब्द का अर्थ है झमेला। फसल पक चुकी है, किसान बहुत प्रसन्न है। यहीं से उसे अभिमान हो जाता है, लेकिन काटकर घर ले जाने तक बहुत सारे झमेले हैं। कई कठिनाइयां है। जब तक फसल बिना बाधा के घर न आ जाए, तब तक सफलता नहीं माननी चाहिए।

इसीलिए कहा गया है – घर आवै तब जान।

यह बात हमारे कार्यों पर भी लागू होती है। कोई भी काम करें, जब तक अंजाम पर न पहुंच जाए, यह बिल्कुल न मान ले कि हम सफल हो चुके हैं।

बाधाओं की कई शक्लें होती हैं। इसी में से एक शक्ल अभिमान है तो दूसरी लापरवाही है। इलिए कबीर ने इस ओर इशारा किया है। अब सवाल यह है कि अपनी सफलता को पूर्ण रूप देने के लिए अभिमान रहित कैसे कहा जाए? इसके लिए परमपिता परमेश्वर के प्रति लागातार प्रार्थना व आभार व्यक्त करते रहें, क्योंकि जब हम प्रार्थना में डूबे हुए होते हैं तो हमारी भावनाओं में, विचार और शब्दों में समर्पण और विनम्रता का भाव अपने आप आता है। प्रार्थना करें और आभार मानें कि हे परमात्मा ! आपका हाथ हमारी पीठ पर नहीं होता तो ये सफलता संभव नहीं थी।

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