आखिरकार तालिबान नहीं बदला. काबुल की नई सरकार में वे चेहरे हैं, जो 1996 की पिछली तालिबान सरकार की याद दिलाते हैं. तालिबान कह तो रहा था कि वह अफ़ग़ानिस्तान में सर्वमान्य सरकार बनाएगा, लेकिन जो चेहरे इसमें शामिल किए गए हैं, उन्हें देखकर ऐसा बिल्कुल नहीं लगता. वहीं, अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तानी दखल के कारण न सिर्फ वहां के नागरिक नाराज हैं, सड़कों पर हैं बल्कि ईरान ने भी इसे लेकर अपने गुस्से का इजहार किया है. रूस ने भी तालिबानी सरकार को मान्यता नहीं दी है. इस तरह दुनिया के इस हिस्से की राजनीति कहीं न कहीं 1996 वाली राजनीति की ओर बढ़ती दिख रही है जो अफ़ग़ानिस्तान को अस्थिरता और गृहयुद्ध की ओर ले जा सकती है.
1996 में जब तालिबान आया था तो पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई ने उसे मान्यता दी थी. अभी सऊदी अरब पूरी तरह खामोश है. यूएई ने थोड़ी-बहुत हरकत की है, लेकिन एक दूरी बनाकर. कतर ने तालिबान से कुछ सौदेबाजी शुरू की है, तो तुर्की उसके सपोर्ट में खड़ा है. पहले जो पश्चिम एशिया था, जिसमें एक तरफ सऊदी अरब और बाकी खाड़ी देश थे. दूसरी ओर इस्लामिक देशों की ओर से दावेदारी के लिए तुर्की खड़ा हुआ. ईरान पहले से ही इस भूमिका में था. अब इस राजनीति को तालिबान के समर्थन और विरोध में भी देखा जा सकता है.
पिछली बार जब तालिबान आया था, तब ईरान बड़ी ताकत के रूप में दिखा था. तालिबान आज ईरान को यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि शिया-सुन्नी वाले विवाद से उसका कोई लेना-देना नहीं. इसलिए उसने सऊदी से एक दूरी बनाई है. मगर यह एक प्रोजेक्शन है कि यह अलग तालिबान है. इस बीच, ईरान ने जिस तरह से पाकिस्तान का विरोध शुरू किया है, वह दूसरी कहानी बयां करता है.
दूसरी ओर, पाकिस्तान की भी हालत ख़राब है. पाकिस्तान का मिलिट्री तबका अफ़ग़ानिस्तान पर कंट्रोल करने का गुमान करता रहा, मगर रिकॉर्ड में हमेशा फेल रहा. जिस तरह पिछले महीनों में पाकिस्तान में हमले हुए हैं, चीन के पाकिस्तानी बेस पर भी, तो यह चीज और बढ़ सकती है क्योंकि तालिबान ख़ुद को किसी सीमा में नहीं देखते. उनके लिए यह विचारधारा का विस्तार है कि अगर अफ़ग़ानिस्तान में ऐसा हो सकता है तो पाकिस्तान में भी हो सकता है. अब अगर तालिबान वहां कुछ समय के लिए भी सरकार चला पाता है तो यह पाकिस्तान के लिए सांस लेने का मौका होगा. इसीलिए तालिबान 2.0 लोगों को यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि देखिए हम बदल गए हैं. पाकिस्तान मिलिट्री भी समझ रही है कि अगर अफ़ग़ानिस्तान में गृह युद्ध होता है तो उसकी मुश्किलें बढ़ जाएंगी क्योंकि चीजें इस स्टेज पर हैं, जहां पर वह उसे कंट्रोल नहीं कर पाएगी.
हिंदुस्तान में देखें तो यही समस्या यहां की भी बन जाती है कि आइसिस के सीरिया या खुरासान से जो वापस आने वाले गिने-चुने आतंकवादी थे, अब उनकी संख्या बढ़ सकती है. हालांकि 1996 की तुलना में भारत कश्मीर में अच्छी पोजीशन में है. पिछली बार जब तालिबान आए थे, तब कश्मीर जल रहा था. उस वक्त पाकिस्तान ने भी आग में घी डालने का काम किया. अगर इस बार भी पाकिस्तान आतंकवादियों को कश्मीर भेजता है तो समस्या बढ़ सकती है. इसलिए वहां की स्थिरता भारत के लिए भी जरूरी है.
मगर अफ़ग़ानिस्तान का ढांचा ऐसा है जिसमें यह कहना मुश्किल होता है कि वहां एक ही सरकार का राज है. काबुल में जो अमेरिकी सपोर्ट वाली सरकार थी, उसका भी पूरे अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण नहीं था. तालिबान आज कुछ इलाकों में सीधे कंट्रोल करते हैं तो कुछ में ट्राइबल लीडरशिप के जरिए कंट्रोल करते हैं. फिलहाल तो ज्यादातर कंट्रोल तालिबान के पास है. सवाल है कि यह कंट्रोल कब तक बना रहेगा और तालिबान अपने फाइटर्स और मुल्ला-मौलवियों को कंट्रोल करने में सफल नहीं होते हैं तो नतीजे क्या होंगे?
फिर तालिबान ने अपने फाइटर्स को तो एक विचारधारा के तहत बरगलाया है. समाज, औरत और राजनीतिक विरोधियों के साथ उनकी अप्रोच वही पुरानी ही है. काबुल में महिलाओं के प्रदर्शन के दौरान तालिबान की हरकत सबने देखी. वे अल्पसंख्यकों, कलाकारों को टारगेट कर रहे हैं. यह सिलसिला चलता रहा तो जिन क्षेत्रों पर तालिबान का कंट्रोल है, वहां अल्पसंख्यकों का विरोध शुरू हो जाएगा और कहीं न कहीं सिविल वॉर की पोजीशन आ जाएगी. इसलिए अगले एक-डेढ़ महीने यह देखना बहुत महत्वपूर्ण होगा कि ऊंट किस करवट बैठता है. अभी तो तालिबान को लेकर सबने एक लचीला रुख अपनाया हुआ है, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चलेगा.
अगर भारत की बात करें तो उसे अब अमेरिका का मुंह ताकने की कोई ज़रूरत नहीं है. पिछले 20 वर्षों से अमेरिका ने एक चैरिटी के तौर पर भारत को अफ़ग़ानिस्तान में एक सुरक्षा कवच दे रखा था, जिससे भारत वहां बिज़नेस और बाकी समझौते कर पा रहा था. अब अमेरिका बस इतना कर सकता है कि अपनी धमक का इस्तेमाल करे. हम देख ही रहे हैं कि दोनों पक्ष लगातार बात कर रहे हैं. अमेरिका के पास वहां के ढेरों फंड्स हैं, जो उसने रोक रखे हैं और तालिबान चाहता है कि ये फंड जल्द से जल्द रिलीज किए जाएं. लेकिन इसके लिए तालिबान को अमेरिका को कुछ गारंटी देनी होगी. वहां पर हिंदुस्तान की बात रखी जा सकती है कि आप क्या गारंटी देंगे कि भारत को कुछ नहीं होगा?
फिर भी भारत को अपनी नीतियां ख़ुद तय करनी होंगी. तालिबान अगर भारत के पड़ोसी होते हैं तो भारत को उनसे मेलजोल बढ़ाना होगा, लेकिन मेलजोल का मतलब तालिबानों को मान्यता देना नहीं होता. जहां तक मान्यता की बात है तो रूस भी अभी तक मान्यता देने को तैयार नहीं है. इसलिए, जहां तक हो सके, मेलजोल बढ़ाएं. तालिबान कह सकता है कि वह पाकिस्तान के रास्ते व्यापार कर सकता है, लेकिन भारत के पास उस तरफ यानी ईरान में चाबहार बंदरगाह है. भारत कह सकता है कि वह चाबहार की ओर से यह काम शुरू करेगा.
हर्ष पंत
(लेखक शिक्षाविद और विदेशी मामलों के विशेषज्ञ हैं ये उनके निजी विचार हैं)