कच्ची शराब नहीं सरकारी सिस्टम ले रहा है जान

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लखनऊ से लेकर देहरादून तक, सहारनपुर से लेकर रूड़ती तक जो बोल सड़क व सदन में गूंज रहे हैं वो केवल दिखावटी आंसू से ज्यादा कुछ नहीं। अगर इन बोल का कुछ मोल होता तो क्या ऐसे कांड हो जाते या हो सकते हैं? कोई सरकार या सरकारी सिस्टम ठान ले तो क्या कुछ भी गलत हो सकता है।

भगवा राज में जहरीली शराब ने कागजों पर जान भले ही 150 के आसपास ही हो लेकिन कितने घर इसकी वजह से तबाह हो गए इसका अंदाजा ना तो कोई सरकार लगा सकती और ना ही चिंता का ढोंग करने वाला समाज व फिजूल के के ढोंग पीटने वाला मीडिया। जिनके मरे वो इसका मर्म जानते हैं, जिन बच्चों के सिर से बाप का साया छिना वो जानते हैं, खासकर वो ज्यादा जानते हैं जिनके यहां कोई कमाने वाला नहीं बचा। बाकी लखनऊ से लेकर देहरादून तक, सहारनपुर से लेकर रूड़ती तक जो बोल सड़क व सदन में गूंज रहे हैं वो केवल दिखावटी आंसू से ज्यादा कुछ नहीं। अगर इन बोल का कुछ मोल होता तो क्या ऐसे कांड हो जाते या हो सकते हैं? कोई सरकार या सरकारी सिस्टम ठान ले तो क्या कुछ भी गलत हो सकता है? अगर हो रहा है, या आगे भी ना होने की गारंटी नहीं तो फिर मूंछ ऐंठकर ये कहने का क्या जरूरत कि हम दोषियों को नहीं छोड़ेंगे?

अगर सरकारी व्यवस्था 4-5 दिन यही तय ना कर पाए कि दोषी कौन है, कहां बनी थी ये कच्ची शराब तो फिर वो क्या एक्शन लेंगे और उस एक्शन का आगे क्या असर रहेगा ये बताने की जरूरत नहीं। अगर यूपी के डीजीपी को ये नहीं पता था कि ये जानलेवा शराब बनी कहां है तो फिर उन्हें ये दावे के साथ कहने की जरूरत क्या थी कि कुशीनगर में बिहार की शराब ने जान ली और सहारनपुर में उत्तराखंड की। शराब चाहे जहां बनी, सरकार तो भाजपा की यहां भी है और वहां भी। बिहार में भी तो सत्ताधारी भाजपा ही है तो फिर सिर से दोषारोपण दूरसे राज्यों पर थोपने की जरूरत क्या थी? अब जबकि ये साबित हो चुका है कि ये जहर सहारपुर में पकाया जा रहा था तो अब आप क्या कहेंगे डीजीपी ओपी सिंह जी? बिना सोचे समझे अगर कोई डीजीपी स्तर का अफसर बोलता है तो गलत साबित होने पर उसके लिए हमारे सिस्टम में क्या कोई सजा नहीं होनी चाहिए? योगी जी हों या रावत जी दोनों सीएम सड़क से लेकर सदन तक यही कर रहे हैं कि हम किसी को बख्शेंगे नहीं तो क्या वास्तव में उनके कहने का आश्य ये है कि हर दोषी अब नपेगा और आगे से ऐसे कांड नहीं होंगे? सजा का मतलब सरकारी स्तर पर निलंबन से ज्यादा है ही क्या? जहां तक आम आदमी का ताल्लुक है तो गलती करने वाले भी फंसेंगे और हो सकता है कुछ निर्दोष भी धर सिए जाएं?

पर लाख टके का सवाल ये है कि अगर हल्के का सिपाही-दरोगा या सीओ निलंबित हुआ है तो फिर इनके ऊपर के अफसर क्या इसके लिए दोषी नहीं हैं? अगर किसी एसएसपी या जिलाअधिकारी के अधीन ऐसा हो रहा है तो क्या वो दोषी नहीं है? अगर आबकारी निरीक्षक दोषी है तो क्या आबकारी आयुक्त की कोई गलती नहीं? खैर ये तो समय बताएगा कि किसकी गर्दन पर किसकी गलती का फंदा कसेगा लेकिन कहीकत ये भी हैं कि इस सबके लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं? अगर योगी सरकार गायों का पेट शराब पर अतिरिक्त कर से भरना चाहती है तो क्या वो दोषी नहीं? सुप्रीम कोर्ट जब एनएच पर शराब ना बेचने की पाबंदी लगा रही थी तो यही सब सरकारें एनएच को स्टेट हाईवे में बदलने की नीति से खजाना भरने की काट तलाश रही थी।।

फिर रोना-पीटना क्यों? क्या कच्ची शराब पीकर मरने वालों के घर वालों को भी मुआवजा मिलना चाहिए? अगर चाहिए तो फिर ये मुआवजा सरकारी खजाने से क्यों? क्यों नहीं उन लोगों से लिया जाना चाहिए जो इसके लिए दोषी है? हकीकत ये है कि सरकार की नीतियां सही नहीं। शराब अगर इतनी ही जरूरी है तो उसे ठेकों पर ही इतना सस्ता बेचो कि कोई इस तरह की शराब से कमाई की सोच ही ना पाए?

लेखक
डीपीएस पंवार

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