ओलिंपिक खेलों के छह स्याह पहलू

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हाल ही में हुए ओलिंपिक्स में सात मेडल जीतने वाले विजेताओं को हार्दिक बधाई। आपकी वर्षों की मेहनत और समर्पण पूरे देश के लिए प्रेरणा है। बतौर वैधानिक चेतावनी बताना चाहता हूं कि आगे पूरे लेख में उन खिलाड़ियों के बारे में कुछ नहीं है, जिन्होंने अपनी मेहनत से देश को गौरवान्वित किया। लेख का उद्देश्य ओलिंपिक्स के स्याह पक्ष को सामने लाना है।

बचपन में मुझे ओलिंपिक्स पसंद थे। यहां जीतने का मतलब था कि आपका देश दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है। सभी ओलिंपिक्स मजेदार और निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा थे। अब मैं बच्चा नहीं रहा। न ही मैं इंटरनेट के पहले के युग में हूं। आज ओलिंपिक्स की ये समस्याएं सबसे सामने हैं:

  1. संदेहास्पद आईओसी: इंटरनेशनल ओलिंपिक कमेटी (आईओसी) नामक निजी संस्था ओलिंपिक का आयोजन करती है। आईओसी व उससे संबद्ध विभिन्न राष्ट्रीय संस्थाएं अपारदर्शी हैं। ओलिंपिक्स विभिन्न सरकारों के बीच सहयोग से नहीं होता। इसे यूएन नहीं करवाता। एक निजी संस्था आयोजित करती है और इवेंट से राजस्व कमाती है। चार साल की कमाई 5 अरब डॉलर है। खिलाड़ियों को मेडल और प्रसिद्धि मिल सकती है, लेकिन कमाई का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं मिलता। इसीलिए ओलिंपिक खिलाड़ी बाद में छोटी-मोटी नौकरियां या काम करते रहते हैं।
  2. आयोजक शहर का वित्तीय नुकसान: आईओसी अमीर संस्था है, वहीं पिछले कुछ दशकों में ओलिंपिक्स आयोजित करने वाले शहरों को वित्तीय नुकसान हुआ है। एथेंस 2004 से ग्रीस आर्थिक संकट में आ गया। टोक्यो को अरबों का नुकसान हुआ। रियो में बने स्टेडियम खंडहर हो रहे हैं। ओलिंपिक्स का पर्यावरण पर भी दीर्घकालिक नकारात्मक असर होता है। यह सब कुछ हफ्तों के आयोजन के लिए है, जिससे अंतत: आईओए ही समृद्ध होता है।
  3. आईओसी पर प्र‌भावशाली देशों का दबाव: हालिया उदाहरण है रूस, जहां सरकार द्वारा प्रायोजित डोपिंग कांड सामने आया था। तकनीकी रूप से आईओसी ने रूस को प्रतिबंधित कर दिया, हालांकि रूसी खिलाड़ियों को आरओसी (रूसी ओलिंपिक कमेटी) के झंडे के तहत खेलने दिया। क्या यह नाइंसाफी है? कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि आईओसी आपके लिए जवाबदेह नहीं है।
  4. मानसिक स्वास्थ्य और खिलाड़ियों से दुर्व्यवहार: अत्यधिक प्रतिस्पर्धी खेल से जुड़ी समस्याएं तब सामने आईं जब टोक्यो में अमेरिकी जिमनास्ट सिमोन बाइल्स ने दबाव को कारण बताते हुए बीच में ही ओलिंपिक्स छोड़ दिया। कई देशों से ऐसी कहानियां सामने आ रही हैं कि बच्चों पर जीतने के लिए वर्षों दबाव बनाया जाता है। ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट बताती है कि सैकड़ों युवा जापानी खिलाड़ियों को ओलिंपिक्स के लिए प्रशिक्षण के दौरान मौखिक और शारीरिक दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा।

भारत में भी ज्यादा मेडल पाने के प्रयास में हमें सावधान रहना चाहिए कि हम बच्चों से दुर्व्यवहार की फैक्टरी न बनें। जिमनास्टिक जैसे कुछ खेलों में प्रशिक्षण नियम और दबाव इतने भयंकर हैं कि हम जानवरों के साथ भी ऐसा न करने दें। आप कहेंगे कि जानवर सहमति नहीं दे सकते। लेकिन क्या 13 वर्षीय बच्चा दे सकता है? कई वर्षों तक 6 घंटे रोजाना प्रशिक्षण और डांट सुनने की सहमति? यह सब किसलिए? ताकि आईओसी अमीर बने? हम कैसे तय करेंगे कि खेल के लिए प्रशिक्षण की सीमा क्या हो और बच्चे के लिए क्या असहनीय है? हमें अति-प्रतिस्पर्धा से सावधान रहना होगा। भारत में पहले ही छात्रों पर बहुत दबाव है। दिल्ली विश्वविद्यालय का 100% का कटऑफ प्रतिस्पर्धा के पागलपन में बदलने का उदाहरण है। उम्मीद है ऐसा पागलपन हम खेलों में नहीं लाएंगे।

  1. शीर्ष प्रदर्शन बनाम छोटी आबादी का स्वास्थ्य: मेडल देश के एथलिटिक और स्वस्थ होने की वास्तविक तस्वीर छिपा देते हैं। सबसे ज्यादा मेडल जीतने वाला अमेरिका दुनिया के सबसे ज्यादा मोटे देशों में है। क्या ज्यादा जरूरी है? कुछ अति फिट एथलीट या ठीक-ठाक फिट पूरा राष्ट्र? आप सीमित खेल बजट कहां लगाएंगे?
  2. अमीर देशों का पूर्वाग्रह: ओलिंपिक मेडलों के लिए आज बहुत संसाधनों के साथ प्रशिक्षण जरूरी है। इससे उच्च आय वाले देशों व मेडलों के बीच संबंध समझ आता है। फिर यह प्रतिस्पर्धा क्या है? खेलों में बराबर अवसर? क्या यह मजे के लिए है? या यह मापने के लिए कि किसके पास अपने खिलाड़ियों के प्रशिक्षण के लिए ज्यादा पैसा है?

अंतरराष्ट्रीय मंच पर राष्ट्रगान बजना भावुक और सार्थक है। इससे वैश्विक मंच पर सफल देश बनने की महत्वाकांक्षा पूरी होती है। आईओसी इस भावना का दोहन करता है। विश्वस्तरीय खिलाड़ी ओलिंपिक्स के नाम का कंटेंट बनाने में उनकी मदद करते हैं। इससे वे अपने स्याह पक्ष से बच जाते हैं।

आईओसी दोहन करता है
ओलिंपिक में सफलता से वैश्विक मंच पर सफल देश बनने की हमारी महत्वाकांक्षा पूरी होती है। आईओसी इस भावना का दोहन करता है। ओलिंपिक्स देखें और उनका आनंद भी उठाएं। वे बुरे नहीं है। लेकिन यह भी ध्यान रखें कि उनके साथ कुछ समस्याएं भी हैं। और वे निश्चिततौर पर देश की मान्यता पाने या प्रमाणीकरण की जगह नहीं हैं।

चेतन भगत
(लेखक अंग्रेजी के उपन्यासकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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