मैं देख रहा था कि साहित्य का अंत हो रहा है और उसका चिर सखा समोसा कोने पड़ा रो रहा है। मुझे पता था कि एक दिन ऐसा आएगा कि मंडी हाउस के गोल चक्कर के बीच खड़े होकर साहित्य बिसूरता हुआ मिलेगा। किशोर कुमार का पुराना गीत गाता हुआ-कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन। वह मंडी हाउस के गोल चक्कर में फंसा जिस-तिस से कहता मिलेगा – बाबा कोई तो निकालो यहां से, मुझे बचा लो! सुबह से साहित्य अकादेमी की बाउंड्री को निहार राह हूं कि कोई आअगा मुझे निकालेगा। मैं अकादेमी जाऊंगा और चाय-समोसे खाऊंगा। वह बके जा रहा था – सोचकर आया थी कि सुबह अकादेमी की लाइब्रेरी का सेवन करूंगा। गोष्टीकाल गुरू हो जाएगा। तो अकादेमी की चाय को उपकृत करूंगा। गोष्ठी का लंच तो करना ही है। फिर शाम के चाय-समोसे भी वहीं लूंगा और मेट्रो से घर लौटूंगा। रात में जके नींद आएगी। नींद में सपना आएगा। सपने में मुझे अकादेमी दिया जा रहा होगा। पर जोरों से भागते ट्रैफिन की लंबी बड़ी गाड़ियों के बीच के घमासान में साहित्य की औकात पहले भी कुछ नहीं थी और अब जब से अकादेमी का बजट कटा है, तब से तो चाय-समोसे भी गए। साहित्य आखिर था क्या महाराज? तु मुझे बुला, मैं तुझे बुलाऊं कुल मिला कर साहित्य एक समोसा भर ही तो था। दोनों सगे भाई की तरह दिखते थे- दोनों एकदम थ्री डाइमेंशनल। दोनों में रुप और अंतर्वस्त की अद्भुभुत लीला। तीन कोन, तीन लोक के बराबर। साहित्य और समोसे का एक ही भाव है। दोनों ‘सकारवादी’ है। दोनों सबका हित करते हैं। दोनों में ‘रूप और अंतर्वस्तु’ बराबर होती है।
दोनों को एक तरह से ‘विखंडित या डिकंस्ट्रक्स’ किया जाता है। अगर आप रूप को तोड़कर गरमागरम अंतर्वस्तु तक पहुंच गए, तो तय जानिए कि सब कुछ हलक को झुलसाने वाला हो जाएगा। ऐसे में, भावक या रसिक की स्थिति वही होती है, जो गूंगे के गुड़ के मारे की होती है कि गरम मसालेदार आलू गाल से चिपका है और गाल जले जा रहा है, लेकिन भावक से न बोला जा रहा है, न निगला जा राह है। उसकी आंखों से विवशंता के आंसू निकले पड़ रहे हैं। यही असली ‘रस-दशा’ है। लेकिन यह ‘रस दशा’ अब प्राप्त नहीं होने वाली। सरकार ने कहा दिया है कि अकादेमी का बजट कटेगा। अकादेमी कुछ अपने आप भी कमाए। साहित्य क्यों सरकार के भरोसे रहे? जब संतन को सीकरी सों कोई काम नहीं, तो सीकरी को ही क्यों संतों से काम हो? अरे भाइया ‘साठ साल’ के हो गए, अब तो स्वायत्त बनो। कब तक पब्लिक सेक्टर की तरह फ्री के समोसे उड़ाता रहेगा। कुछ कमाओं तो खर्च करों। साहित्य की आत्मा बजट में होती है। बजट कटा तो सब कटा। उसमें भी सबसे पहले समोसा कटा, क्योंकि वही ‘सुकट्य’ था। मैं देख रहा था कि साहित्य का अंत हो रहा है और उसका चिर सखा समोसा कोने में पड़ा रो रहा है। ऐसे ही संकटों में साहित्य की नई सिद्धांतिकियों का जन्म होता है। जब-जब संकट आता है, साहित्य की नई सिद्धांतिकी अपने आप निकल पड़ती है। जैसे यह सिद्धांतिकी कि ‘साहित्य एक समोसा है’। लेकिन साहित्य में समोसे की भूमिका को कभी समझा ही नहीं गया। गोष्ठी में विद्वान आए और सबको बोर करके उठ लिए। लेकिन जैसे ही हॉल से बाहर समोसे के दर्शन होते हैं, वैसे ही आपके कंठ पर सरस्वती विराज करके उठ लिए। लेकिन जैसे ही हॉल से बाहर समोसे के दर्शन होते हैं, वैसे ही आपके कंठ पर सरस्वती विराज जाकी है। वाह क्या बात है! वक्ता समझता है कि आप उसके वक्तव्य की सराहना कर रहे हैं, जबकि आप समोसे की सराहना कर रहे होते हैं।
लेखक
सुधीश पचौरी