यह देखकर ताज्जुब हो सकता है कि राजनीतिक दल अपनी सरकारों के खिलाफ जमा हुई एंटीइनकम्बेंसी को मंद करने या पलटने के लिए एक-दूसरे से कितनी अलग-अलग रणनीतियां अपनाते हैं। इनमें सबसे दिलचस्प है भाजपा की रणनीति। एक लोकप्रिय विज्ञापन की तर्ज पर उसने एक से अधिक बार ‘सारे के सारे बदल डालूंगा’ का फॉर्मूला इस्तेमाल किया है। दिल्ली में पिछले नगर निगम चुनाव में भाजपा ने सभी पार्षदों का टिकट काटकर सभी को चौंका दिया था।
ऐसा करने से पार्टी फायदे में रही और उसने जनता के रोष को मंद करके चुनाव जीत लिया। इस बार दिल्ली का यह फॉर्मूला गुजरात में आजमाया गया है। विजय रूपाणी की सरकार के खिलाफ नाराजगी भांप कर भाजपा आलाकमान ने प्रदेश में ‘लोकतांत्रिक प्रयोग’ किया है जिसके तहत मुख्यमंत्री समेत सभी मंत्री बदल दिए गए हैं। ये नए कारकुन शासन-प्रशासन की दृष्टि से भी नये हैं। अब देखना यह है कि क्या गुजरात की जनता दिल्ली नगर निगम की तर्ज पर नई सरकार को ध्यान में रख कर वोट देने का फैसला करेगी?
ऐसी बात भी नहीं कि भाजपा हर जगह यही रणनीति अपनाती हो। उत्तर प्रदेश में काफी सोचने-विचारने के बाद उसने फैसला किया कि वह मुख्यमंत्री नहीं बदलेगी। जिस तरह अटल बिहारी वाजपेयी ने 2004 के चुनाव में ‘इंडिया शाइनिंग’ की जबरदस्त विज्ञापन मुहिम चलाई थी, जिसकी नाकामी इतिहास बन चुकी है। इस बार उसी तरह की या शायद उससे भी बढ़ी विज्ञापन मुहिम योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ‘यूपी शाइनिंग’ की चल रही है। देखा जाए तो यह भी एक द्विआयामी ‘लोकतांत्रिक प्रयोग’ ही है।
इसके तहत देश के सबसे बड़े प्रदेश की जनता के सामने पिछले साढ़े चार साल की उपलब्धियां समारोहपूर्वक परोसने के साथ-साथ जातियों का वह समीकरण बैठाया जा रहा है जिसने पिछले दो लोकसभा और एक विधानसभा चुनाव में भाजपा को शानदार जीत दिलाई थी। जाहिर है कि फैसला मतदाताओं के सामने है कि वे सरकार के आंकड़ों और दावेदारियों पर किस हद तक यकीन करते हैं। योगी दोबारा चुन गए तो इतिहास बना देंगे। मोटे तौर पर कहें तो पिछले पचास साल से उप्र में कोई लगातार दो बार सरकार नहीं बनाता।
कांग्रेस का रवैया अलग है। उसने पंजाब में एक सामाजिक प्रयोग करने की ठानी है। एक दलित को पहली बार में मुख्यमंत्री बनाकर वह जाट सिखों, हिंदू व्यापारियों और हिंदू-सिख दलितों के दुर्जेय जनाधार को संबोधित करना चाहती है। उसका इरादा तीन तरफा है। एक ओर तो वह अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी के गठजोड़ (जाट) सिख-दलित) को परास्त करना चाहती है और दूसरी ओर आम आदमी पार्टी द्वारा पिछले चुनाव में हासिल किए गए अच्छे-खासे दलित वोटों को दोबारा अरविंद केजरीवाल की झोली में जाने से रोकने की कोशिश कर रही है।
तीसरी तरफ कांग्रेस अमरिंदर सरकार के खिलाफ़ जमा होती जा रही उस नाराजगी की धार भी कमजोर करना चाहती है जो उसकी अंतरकलह से और भी तीखी हो चुकी है। ममता बनर्जी 2019 से 2021 के बीच में यह कमाल करके दिखा चुकी हैं कि ‘एंटीइनकम्बेंसी’ को ‘प्रोइनकम्बेंसी’ में कैसे बदला जाता है। अब बारी पटेल, चन्नी और योगी की है। अगर ये तीनों कामयाब होते हैं तो चुनावी रणनीतियों के एकदम नए और अभूतपूर्व पहलू सामने आ जाएंगे।
अभय कुमार दुबे
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)