मुलायमसिंह यादव मैनपुरी से संसद का चुनाव लड़ रहे हैं और मायावती उनका चुनाव-प्रचार करने वहां पहुंच गईं। अनहोनी हो गई। मुलायम पर माया छा गईं और माया खुद मुलायम हो गईं। उप्र के इन दोनों नेताओं के बीच पिछले 24 साल से 36 का आंकड़ा रहा है। एक का मुंह इधर तो दूसरे का उधर! दोनों मुंहों से एक-दूसरे के लिए मैंने ऐसे शब्द सुने हैं, जिन्हें मैं यहां दोहरा नहीं सकता।
जून 1995 की बात है। मुलायमसिंह की सरकार बनी थी, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन से। मायावती ने गठबंधन तोड़ दिया और मुलायम की सरकार गिराने की घोषणा कर दी। इस पर मुलायम के समर्थकों ने मायावती पर हमला कर दिया। दोनों पार्टियों के लाखों समर्थकों और इन दोनों नेताओं के बीच तब से ऐसी गांठ पड़ गई, जैसी भारत और पाकिस्तान के बीच पड़ी हुई है, बल्कि उससे भी ज्यादा ! इस गांठ को खोला ,अखिलेश यादव ने !
अखिलेश ने अपने मुख्यमंत्री-काल में मायावती के प्रति कभी किसी अशिष्ट शब्द का प्रयोग नहीं किया बल्कि उनको वह ‘बुआजी’ ही कहते रहे। अब उन्होंने बसपा और सपा का गठबंधन करके उप्र की शक्ल ही बदल दी। वे भाजपा और कांग्रेस, दोनों पार्टियों के लिए बहुत भारी पड़ रहे हैं। उप्र के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री की लोकसभा सीटों के उप-चुनाव में भाजपा को हराकर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि बसपा और सपा का गठबंधन भाजपा के लिए अब 2019 में कितना खतरनाक सिद्ध हो सकता है।
यदि ये दोनों पार्टियां मिलकर 40-45 सीटें भी ले आईं तो केंद्र में मोदी का दुबारा प्रधानमंत्री बनना आसान नहीं होगा। गठबंधन-सरकार बनाने के लिए भाजपा को किसी नए नेता का नाम आगे बढ़ाना होगा। उस समय अखिलेश राष्ट्रीय राजनीति के कर्णधारों में गिने जाने लगेंगे। बसपा और सपा का यह गठबंधन किसी सिद्धांत पर आधारित नहीं है बल्कि यह देश के पिछड़ों और अनुसूचितों में पैदा होनेवाली सदभावना का प्रतीक है।
भारत की वर्तमान राजनीति सिद्धांत नहीं, सत्ताप्रधान हो गई है। सत्ता ही वह गोंद है, जो दलों और नेताओं को एक-दूसरे से चिपकाता है। इस गोंद की महत्ता 23 मई के बाद अपरंपार होनेवाली है।
डॉ. वेद प्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है