उपचार की और दरकार

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किसी जटिल समस्या के समाधान के लिए उसकी जड़ तक पहुंचना जरूरी है। अर्थव्यवस्था में सुस्ती के संकेत मिलने के बाद मोदी सरकार ने इसे प्रोत्साहन देने का फैसला किया है। उद्योग जगत के शीर्ष उद्यमियों, अर्थशास्त्रियों और अन्य नीति विशेषज्ञों के साथ बैठकों के बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कई बड़े उपाय किए हैं। इनमें से कई कदम विकास दर को रफ्तार देंगे जो चालू वित्त वर्ष की जून तिमाही में पिछले छह साल के निचले स्तर पर लुढक़ गई है। वित्त मंत्री ने पिछले माह प्रेस वार्ताओं की श्रृंखला के जरिए जो घोषणाएं की हैं उन्हें ‘मिनी बजट’ कहा जा सकता है। इस दरम्यान सरकार ने अर्थव्यवस्था की मर्ज की पहचान करने में कुछ देरी कर दी नहीं तो आज समस्या इतनी व्यापक नहीं होती। हालांकि सरकार अब वित्तीय तरलता का संकट, उपभोक्ता खर्च में सुस्ती, वाहनों की बिक्री में गिरावट और निवेशकों के भरोसे में क मी जैसे ज्वलंत मुद्दों पर खुले मन से बात कर रही है। साथ ही यह भी स्वीकार कर लिया है अर्थव्यवस्था में समस्या तो है। इस मर्ज को दूर करने के लिए वाहन उद्योग को कानूनी मानदंड और करों में कई छूट दी हैं।

बजट के दौरान एफ पीआई पर बढ़ाए गए कर के बोझ को वापस ले लिया है। इसी तरह प्रणाली में वित्तीय तरलता बढ़ाने के लिए केंद्रीय सार्वजनिक उद्यमों को लघु एवं मझोले उद्योगों के बकाए का तुरंत भुगतान करने का आदेश दिया है। इससे एमएसएमई को जल्द ही 60,000 करोड़ पए मिलेंगे। वित्त मंत्री ने अर्थव्यवस्था में जान फूंक ने के लिए अभी तक जो उपाय किए उनमें कारपोरेट टैक्स में कटौती सबसे बड़ा उपचार है। इस क दम भारतीय कंपनियां वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में आ गई हैं। कर की प्रभावी दर करीब 10 फीसद घटकर 25 फीसद के स्तर पर आ जाने से भारत अब अपने एशियाई प्रतिद्वंद्वी चीन, कोरिया, मलयेशिया, इंडोनेशिया जैसे देशों की श्रेणी में आ गया है। इन सभी देशों में कारपोरेट करकी दरें इसी स्तर पर हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि कर कटौती हमेशा एक स्वागत योग्य कदम है लेकिन क्या अकेले इस कदम से सुस्त पड़े पूंजीगत व्यय में वृद्धि हो पाएगी, यह एक बड़ा सवाल है। यहां तक कि यदि किसी कंपनी की विस्तार की योजना है तो उसके समक्ष वैश्विक बाजार में अनिश्चितता और मांग और वृद्धि जैसी कई बड़ी चुनौतियां हैं। इस दरम्यान सरकार ने नई कंपनियों के लिए कारपोरेट टैक्स की दरों को आकर्षक बनाकर विकास के लिए मजबूत आधार बना दिया है। इस पहल से कंपनियों को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ डीआई) आकर्षित करने में मदद मिलेगी।

खासतौर पर जो कंपनियां चीन से निकल कर बाहर जाना चाहती हैं वह भारत में अपना ठिकाना तलाश सकती हैं। विनिर्माण क्षेत्र में एक अक्टूबर के बाद प्रवेश करने वाली नई घरेलू कंपनियां उन्हें अब 17 फीसद की दर से प्रभावी कारपोरेट टैक्स चुकना होगा। इससे साफ जाहिर है कि भारत अब वैश्विक बाजार में चल रहे व्यापार युद्ध से उत्पन्न होने वाले नए अवसरों को भुनाने के लिए ध्यान केंद्रित कर रहा है। इसी रणनीति के तहत चीन से बाहर निकलने वाले उद्योगों पर डोरे डालने का प्रयास किया गया है। कारपोरेट टैक्स में कमी के बाद भारत दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशियाई जैसे विकासशील देशो में सबसे कम कर व्यवस्था वाला राष्ट्र बन गया है। यदि तह में जाकर देखें तो सरकार के इन उपायों से उद्योग जगत की धारणा में निश्चित तौर पर सुधार आना चाहिए। हालांकि दीर्घावधि में ऊंची विकास दर हासिल करने के लिए अभी और प्रोत्साहन उपायों की जरूरत है। इस मुद्दे पर सरकार उद्योग जगत और इससे जुड़े अन्य हितधारकों से लगातार संपर्क में है और उनकी समस्याओं का समाधान करने की कोशिश कर रही है। निश्चित तौर पर यह सराहनीय क दम है अर्थव्यवस्था क प्रोत्साहन देने के लिए अभी कुछ और उपायों की दरकार है। सरकार को इस बात को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि वित्तीय तरलता की कमी से अर्थव्यवस्था में ऋ ण संकट पैदा हो गया है।

आटो, विनिर्माण, कृषि, एफ एमसीजी, रीयल एस्टेट और निर्माण जैसे कई क्षेत्रों की विकास दर मंश भारी गिरावट आई है। इस बार आर्थिक मंदी का मुख्य कारण कमजोर उपभोक्ता मांग और निजी निवेश में गिरावट है। पिछले पांच वर्षो में भारतीय परिवारों के कुल उपभोग व्यय में 7.8 फीसद वृद्धि रही है जो वर्ष 2011-14 के दरम्यान 6.1 फीसदी थी। लेकिन इस साल जून तिमाही में यह आंकड़ा 3.1 फीसद पर लुढक़ गया। यह गिरावट कितनी बड़ी है इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मार्च 2019 तिमाही में यह 7.2 फीसद रही थी। इसी कारक ने अर्थव्यवस्था को झक झोर कर रख दिया है। उद्योग जगत के लगभग हर क्षेत्र की विकास दर में संकुचन दर्ज हुआ जो सरकार से मदद की गुहार लगा रहे हैं। सरकार का ध्यान अब प्रणाली में उपभोक्ता मांग को बढ़ाने पर होना चाहिए। इस मामले में ‘शापिंग मेला’ कारगर कदम साबित हो सकता है। खपत में वृद्धि तभी संभव है जब घरों में खर्च के लिए आय तेजी से बढ़े। ब्याज दरों में कमी, कुछ उपभोक्ता संबंधी वस्तुओं पर जीएसटी दरों में कमी और रोजगार को बढ़ावा देने के लिए बुनियादी ढांचे के विकास पर खर्च में तेजी लाना कुछ ऐसे उपाय हैं जिन पर सरकार को अब ध्यान देने की जरूरत है।

यदि मांग बढ़ती है तो इससे पूंजीगत व्यय बढ़ेगा। इससे विकास के नए चक्र को शुरू करने में मदद मिल सकती है। जाहिर है अर्थव्यवस्था को फिर से मजबूती की राह पर लाने के लिए खपत की पहेली को सुलझाना बहुत जरूरी है। किसी भी अर्थव्यवस्था की मजबूती उसकी वित्तीय तरलता पर निर्भर करती है। पूंजी के प्रवाह और बैंकों के एकीकरण से पण्राली में तरलता की स्थिति में सुधार आएगा लेकिन सरकार और आरबीआई को यह सुनिश्चित करना होगा कि तरलता की स्थिति मौजूदा स्तर से खराब न हो। हालांकि केंद्रीय बैंक के उपायों से तरलता में सुधार आया है लेकिन उसे एनबीएफ सी के संकट को कम करने के लिए कुछ कदम उठाने चाहिए। इस मामले में इनकी परिसंपत्तियों की गुणवत्ता की समीक्षा अच्छा विकल्प साबित हो सकती है। भविष्य में अर्थव्यवस्था पटरी से उतरे यह सुनिश्चित करने के लिए बैंकिंग, एनबीएफसी और बुनियादी ढांचा क्षेत्र में सुधारों पर विशेष ध्यान देना होगा। बहरहाल, मौजूदा सुस्ती के दौर के बीच सतत और उच्च विकास दर हासिल करने के लिए अभी और आर्थिक सुधारों की जरूरत है। कारपोरेट कर की खामियों को दूर करने के बाद सरकार को भूमि और श्रम सुधारों पर विशेष ध्यान देना होगा। इसके अलावा बुनियादी ढांचे में सुधार और लाल फीताशाही को समाप्त करने से भारत को निवेश आकर्षित करने, उच्च विकास दर बनाए रखने और रोजगार को बढ़ावा देने में मदद मिल सक ती है।

राजीव सिंह
(लेखक कार्वी स्टाक ब्रोकिंग के सीईओ हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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