उत्तराखंड : विस्थापन की बाट जोहते गांव

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16 तारीख को फिर रिणी जाना हुआ। इसी महीने 7 जुलाई को उत्तराखंड के इस गांव में आई आपदा के पांच महीने पूरे हो गए हैं। इन पांच महीनों में 7 फरवरी को आकर जमा हुआ हजारों टन का मलबा साफ हो गया है। आपदा के पांच महीने बाद रिणी गांव लगातार खतरे के ढेर पर बैठा है। इस बीच प्रशासन ने सर्वे करके इस गांव को कहीं और बसाने की बात की, लेकिन जहां इन्हें बसाने की बात थी, वहां के लोगों ने विरोध कर दिया क्योंकि प्रशासन की योजना में मुआवजे की कमी थी।

जो मलबा साफ हुआ है, उसमें भी प्रशासन का कोई बड़ा हाथ नहीं है। 7 फरवरी को रिणी गांव में जो आपदा आई थी, उससे जमा मलबा 15, 16 और 17 जून की लगातार हुई बारिश में बहा है। और सिर्फ मलबा ही नहीं बहा, इस बारिश से 7 फरवरी को बह गए पुल की जगह पर बने नए पुल पर भी खतरा पैदा हो गया और रिणी गांव के नीचे सीमा को जोड़ने वाली 40 मीटर सड़क भी बह गई। तीन दिन-तीन रात की लगातार बारिश से ऋषि गंगा में पानी खतरे के निशान से ऊपर आ गया और ऊपरी गांव का एक हिस्सा भी धंस गया। इससे नीचे गांव में लोगों के घरों को खतरा पैदा हो गया। लोग रात भर घरों से निकलकर भागते रहे।

रिणी गांव के नीचे वाली सड़क के धंसने से सीमा के साथ-साथ उस पार के 22 गांवों से भी संपर्क कट गया। सड़क का जो हिस्सा धंसा, उसके ठीक ऊपर चिपको की नेता गौरा देवी का स्मारक था और उनकी मूर्ति लगी थी। चार-पांच दिन के बाद पुलिस-प्रशासन गौरा देवी की मूर्ति हटाने के लिए पहुंचा, तो गांव वालों ने इसे अशुभ मानते हुए मना कर दिया। यह गांव की महिलाओं के लिए अपने अस्तित्व के साथ-साथ भावनात्मक सवाल भी था। रिणी वही गांव है, जहां स्व. सुंदरलाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन चला था। बहरहाल, प्रशासन ने गौरा देवी की मूर्ति हटाकर सड़क बना दी है।

रिणी गांव पर लगातार बढ़ते खतरे को देखते हुए विस्थापन के लिए 24 जून को भूगर्भ विभाग की एक टीम ने गांव का सर्वे किया। इस सर्वे के दौरान ही धसाव वाली जगह में फिर से पत्थर गिरने लगे और सर्वे वाले उसकी चपेट में आने से बाल-बाल बचे। सर्वे की रिपोर्ट गांव का विस्थापन किए जाने के पक्ष में थी। आनन-फानन प्रशासन ने ऐलान कर दिया कि रिणी के बगल के गांव सुभाईं में जमीन देख ली गई है और वहां रिणी के 50 परिवारों का विस्थापन किया जाएगा। विस्थापन जैसी जटिल प्रक्रिया का इतना इंस्टेंट समाधान गजब था। इसकी प्रतिक्रिया भी तत्काल हुई। दूसरे ही दिन सुभाईं गांव के लोगों ने इसका विरोध कर दिया। वे आंदोलन की चेतावनी देने लगे, क्योंकि विस्थापन का मतलब सिर्फ 100 स्क्वायर मीटर (आधा नाली) जमीन और दो कमरों का घर नहीं होता। जल, जंगल, जमीन, चरागाह, मरघट, पनघट सहित हक-हकूक सभी कुछ होता है। इसके बाद से प्रशासन ने चुप्पी साध रखी है।

बता दें कि उत्तराखंड में ढाई सौ से ज्यादा गांवों का विस्थापन होना है। जोशीमठ ब्लॉक में ही 2007 से 17 से अधिक गांव विस्थापन की बाट जोह रहे हैं। पूर्व में ग्रामीणों ने सुझाव दिया था कि पलायन के चलते उत्तराखंड के भुतहा कहे जा रहे गांवों का अधिग्रहण सरकार करे। जितने गांव विस्थापित होने हैं, भुतहे गांव भी लगभग उतने ही हैं। यहां विस्थापित होने वालों को बसाया जा सकता है और भुतहे गांवों को भी आबाद किया जा सकता है। विस्थापन के बाद जो जमीन खाली हो, उनका भी संरक्षण करना होगा, ताकि भूमि धसाव को वहीं पर रोका जा सके।

आपदा और विस्थापन को लेकर अब रिणी के लोगों ने अदालतों का चक्कर लगाना शुरू कर दिया है, मगर वहां से भी उन्हें राहत की कोई आस नहीं दिखाई दे रही है। पिछले कई सालों से उत्तराखंड पलायन और विस्थापन जैसी गंभीर चुनौतियों से अगर जूझ रहा है तो सिर्फ इसलिए कि सरकार की विस्थापन नीति लचर व अव्यावहारिक है।

अतुल सती
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और समाजसेवी हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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