समय के साथ-साथ नई पीढ़ी द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द भी बदलते जाते हैं। जब मेरी पत्रकारिता शुरू हुई थी तब प्रेस कांफ्रेंस के लिए यह पूरा शब्द इस्तेमाल होता था। मगर आज के युवा पत्रकार इसकी जगह पीसी अक्षरो का इस्तेमाल करके काम चला लेते हैं। ऐसे ही आजकल नई पीढ़ी ‘पक गए हैं’ शब्द का काफी इस्तेमाल करती है। जिसका अर्थ यह होता है कि हम बहुत परेशान व बौखला गए हैं। खबरिया चैनलो पर सुशांत राजपूत आत्महत्या की कवरेज देखी तो उसके बारे में खबरें सुन सुनकर मेरे मन में यही शब्द आया कि मैं इसे सुनकर बेहद पक गया हूं। मेरा इतिहास, भूगोल शुरू से ही कमजेार था व आज भी मुझे याद नहीं है कि अकबर, बाबर, हुमायू शाहजहां व औरंगजेब में से कौन किसका बाप व कौन किसका बेटा था। मगर सुशांत राजपूत के बारे में इतना ज्यादा सुना कि मुझे उनकी तीनो बहनों, पिता, दोस्त, रिश्तेदार व दोस्त द्वारा उनका घर छोड़ने तक ही तारीख याद हो गई।
सच कहूं तो मैं उसकी कवरेज देख-देखकर पक गया हूं। हर चैनल पर सुशांत हावी है। हाल ही में एक चैनल पर तो दो पत्रकार लड़ाकू मुर्गे की तरह बहस करते-करते लड़ने लगे। बिहार की पृष्ठभूमि वाले पत्रकार अपनी रिपोर्टो में सुशांत का पक्ष ले रहे हैं। जबकि बंगाली आधिपत्य वाला एक चैनल या तो इस मुद्दे पर चुप्पी साध गया है अथवा वह उनका पक्ष प्रस्तुत कर रहा है व रिया की सबसे ज्यादा कवरेज कर रहा है।उसी ने सबसे पहले रिया का इंटरव्यू दिखाया था। एक चैनल पर तो बुलडाग माना जाने वाला एक पत्रकार पनवाड़ी नाम से पुकारे जाने वाले पत्रकारों के बीच बहस के दौरान इतनी ज्यादा तल्खियां बढ़ गई कि वे दोनों गाली गलोच पर उतर आए। एक-दूसरे के अतीत के काले अध्याय खुलकर खोलने लगे। इसलिए चैनल खोलने से डरने लगा हूं क्योंकि मुझे बिना देखे ही यह पता चल जाता है कि वहां क्या कहा जा रहा होगा।
मेरा मानना है कि पत्रकार कोई स्वर्ग से उतरे प्राणी नहीं होते हैं। बल्कि वे तो आम जीव-जंतुओ की तरह ही इस धरती व समाज के प्राणी होते हैं। वे क्षेत्रीय भाषा, जाति धर्म से प्रभावित होते हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब पीवी नरसिंहराव सरकार में मंत्री रहे कल्पनाथ राय का अपने मंत्रालय के सचिव श्रीसेन से झगड़ा हुआ तो हिंदी भाषी व बंगाली के पत्रकार दो खेंमो में बंट गए।हिंदीभाषी पत्रकारों को कल्पनाथ राय अपने सचिवो के बारे में खबरें देते व सचिव अपनी भाषा वाले पत्रकारो को खबरें देते। बात यही तक सीमित नहीं है। हमारे नेता तो इसकी इंतहा कर देते हैं। कांग्रेस के विवादास्पद नेता व मनु शर्मा के पिता विनोद शर्मा अलग-अलग बार हरियाणा व पंजाब से चुने गए। जब वे हरियाणा से चुने जाते तो एसवाईएल नहर बनाए जाने का समर्थन करते व जब पंजाब से चुने जाते तो वे इसका विरोध करना शुरू कर देते थे।
शायद यही वजह है कि हाल ही में मुझे किसी ने एक कार्टून भेजा जिसमें एक व्यक्ति सामने खड़े व्यक्ति से पूछ रहा है कि भाई साहब आप किस पार्टी के पत्रकार हो। याद दिला दे कि संजय निरूपम जब शिवसेना में थे तब कांग्रेस की ऐसी-तैसी करते थे व जब कांग्रेस में शामिल हुए तो शिव सेना का बैंड बजाने लगे। आजकल यही काम कांग्रेस से शिवसेना में आई नेत्री सुश्री चतुर्वेदी कर रही है।
ऐसे में मुझे एक घटना याद आ जाती है। एक समय हमारे तत्कालीन संपादक प्रभाष जोशी देवीलाल के बहुत करीब थे। जब देवीलाल की हरियाणा में रैली हुई तो वे उनके साथ मंच पर बैठे नजर आए। वहां नीचे पत्रकारो की भीड़ में मैं भी बैठा था। मेरे साथ बैठे हिंदुस्तान टाइम्स के एक वरिष्ठ पत्रकार अनिल महेश्वरी ने मुझसे कहा कि तुम अभी युवा हो, जीवन भर तुम्हे पत्रकारिता करनी है। इस बात का ध्यान रखना कि नेता व पत्रकार के संबंध आग व आदमी जैसे होते हैं। उनके इतना पास नहीं आओ कि तुम्हारे हाथ जल जाएं व इतनी दूर मत जाओ कि ठंड लगने लगे। उन्होंने उनसे संबंधों की सीमा रेखा खींच दी थी। उन दिनों प्रभाषजी को देवीलाल के साथ जोड़कर देखा जाने लगा था।
आज चैनलो पर रिया-सुशांत से लेकर चीनी खतरे को लेकर जो कुछ चल रहा है, उससे मैं उसी तरह से आजिज आ चुका हूं, जैसा कि आपातकाल के दौरान मुझे ऑल इंडिया रेडियो पर मधुकर राजस्थानी द्वारा लिखे गए गीत थे जैसे 20 पंखुडि़यो वाला यह फूल देखा व नौ लाख सितारो से चुनकर हम 20 सितारे लाए हैं।पहले तो सिर भन्ना देने वाला एक ही सरकारी प्रचार माध्यम था मगर आज तमाम खबरिया निजी चैनल सरकार के पांव दबाने में बुरी तरह से पछाड़ रहे हैं।
विवेक सक्सेना
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)