आरक्षण पर सियासय

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आरक्षण
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सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि सरकारी नौकरियों में पदोन्नति के लिए आरक्षण की मांग करना मौलिक अधिकार नहीं है। साथ में यह भी कहा गया कि सरकारी सेवा में कुछ समुदायों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व ना दिये जाने का आंकड़ा सामने लाये बिना राज्य सरकारों को इसके लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। यह फैसला कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार की अपील पर सुनाया है। इसके बाद से ही सियासी दलों की त्यौरियां चढ़ गई हैं। इसलिए और भी कि इस वक्त उत्तराखंड में भाजपा सरकार है। सोमवार को इसको लेकर संसद के दोनों सदनों में विशेष चर्चा की मांग उठी और मोदी सरकार की नीयत पर निशाना साधा गया। वैसे इस ताजा विषय की बुनियाद यह है कि उत्तराखंड हाईकोर्ट ने एक याचिका पर राज्य सरकार को पदोन्नत में आरक्षण देने की व्यवस्था करने को कहा था। इसके लिए वंचित समुदायों का आंकड़ा जुटाने का निर्देश दिया गया था। इसके खिलाफ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील 2012 में की थीए तब राज्य और केन्द्र दोनों स्थानों पर साा में कांग्रेस पार्टी थी। तब राज्य सरकार के वकीलों की तरफ से दलील दी गई थी कि आरक्षण मौलिक अधिकार है।

हालांकि अपने फैसले में कोर्ट ने संवैधानिक स्थिति स्पष्ट करते हुए उल्लेख किया है कि अनुच्छेद 16 (4) और 16 (4-ए) आरक्षण लागू करने की शक्ति जरूर देता है लेकिन इसकी संभावना तभी बनती है जब राज्य सरकारों को लगे की सरकारी सेवाओं में कुछ समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट में ऐसा कुछ नहीं हैए जो किसी राज्य सरकार के विवेक पर प्रतिबंध लगाता हो लेकिन मामला वोट बैंक की राजनीति से जुड़ा हुआ है, इसलिए हर दल इसमें खुद को आरक्षण का सबसे बड़ा पैरोकार साबित करने की दौड़ में है। इसी हड़बड़ी में कांग्रेस भूल गई कि अपील उसके कार्यकाल में हुई थी। इस मसले पर खुद एनडीए का हिस्सा लोक जनशक्ति पार्टी ने भी मोदी सरकार से हस्तक्षेप करते हुए आरक्षण के विषय को नौवीं अनुसूची में डालने को कहा है ताकि भविष्य में कोर्ट इसकी समीक्षा ना कर सके। भाजपा भी फूं क-फूं क कर आगे बढ़ रही है। आगे बिहार विधानसभा का चुनाव है और आरक्षण की यह शुरू हुई सियासत भारी पड़ सकती है। 2015 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले ऐसे ही सर संघ चालक प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर दिए बयान का विपरीत असर पड़ा था।

जबकि उन्होंने सिर्फ समीक्षा की जरूरत बताई थी। इसका मतलब साफ है जिन्हें अभी नहीं लाभ मिल पाया है उन तक उसे पहुंचाने की व्यवस्था करना। पर अर्थ को सोचा-समझा अनर्थ हो गया। वैसे भी क्रीमी लेयर के तहत कोटे का लाभ लेने वाले लोगों की पहचान की गुंजाइश वोट बैंक के चलते नेपथ्य में है। सिर्फ अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते पार्टियां इस निर्णय पर पहुंचना चाहती है कि आरक्षण पर तथ्यात्मक चर्चा ना हो। एक लिहाल से कोर्ट ने ठीक ही कहा है कि कोटा किसी के लिए मौलिक अधिकार नहीं हो सकता। वक्त के हिसाब से जिन्हें असर नहीं मिल पाया है उनको पहचान कर लाभ दिया जाना चाहिए। पर ऐसे वंचित समुदायों की पहचान और उनका आंकड़ा तैयार करने की कोई सरकार जहमत नहीं उठाना चाहती। उारखंड हाईकोर्ट ने भी आंकड़ों की जरूरत बताई थी और सुप्रीम कोर्ट ने भी ठीक वही बात स्पष्ट की है, तब पेंच कहां है। कहीं नहीं, बस फि क्र इतनी कि आरक्षण को लेकर अमुक पार्टी सबसे ज्यादा संवेदनशील है।

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