भारत में रक्षा मामलों की सर्वोच्च निर्णय समिति— कैबिनेट कमेटी ऑन सियोरिटी (सीसीएस)—ने 16 जून को शुरुआती गोली दाग दी थी। समिति ने देश के रक्षा औद्योगिक उत्पादन प्रतिष्ठान के अब तक के सबसे महंगे और पेचीदा कायापलट को मंजूरी दी। इसमें 41 आयुध कारखानों को अगले साल तक नए सिरे से ढालकर सरकार के पूर्ण स्वामित्व वाले सात निगमों में बदला जाएगा। इस कदम का मकसद कुल मिलाकर करीब 80,000 करोड़ रुपए के इन कारखानों को तेजी से उत्पादकता की राह पर लाना है। इनमें 70,000 लोग काम करते हैं और ये मिलकर दुनिया का सबसे बड़ा सरकारी महकमा हैं। ये कारखाने मुख्यत भारतीय सेना के लिए युद्ध टैंक, हथियारबंद लड़ाकू वाहन, रॉकेट लॉन्चर और तोप प्रणालियां बनाते हैं। मगर बरसों से कोई नवाचार न होने और उत्पादों की विविधता घटने से वे न तो निर्यात पर भारत की कमरतोड़ निर्भरता कम कर सके और न ही निर्यात के लिए स्वदेशी हथियार मुहैया करवाकर कूटनीतिक वजन बढ़ा सके। प्रस्तावित सात सार्वजनिक रक्षा उपक्रम (डीपीएसयू) एचएएल (हिंदुस्तान एरोनॉटिस लि.) और मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स लि. सरीखे उन मौजूदा नौ उपक्रमों के अलावा होंगे जो वायु सेना और नौसेना को लड़ाकू विमान, हेलिकॉप्टर, युद्धपोत और पनडुब्बियां सप्लाइ करते हैं।
ये सारे सार्वजनिक रक्षा उपक्रम मिलकर, रूस और चीन के बाद, दुनिया के तीसरे सबसे बड़े सरकारी स्वामित्व वाले सैन्य औद्योगिक प्रतिष्ठान का निर्माण करेंगे। रक्षा मंत्रालय (एमओडी) ने 41 आयुध कारखानों को उनके उत्पादों के आधार पर सात डीपीएसयू में ढालने का काम शुरू कर दिया है। आयुध निर्माणी बोर्ड (ओएफबी) को भंग कर दिया जाएगा, जिसका मुख्यालय कोलकाता में है और आयुध कारखाने इसी के मातहत काम करते हैं। एमओडी के एक बड़े अफसर कहते हैं,ओएफबी संयुक्त परिवार की तरह है। संयुक्त परिवार में सब जिम्मेदार होते हैं और फिर भी कोई जिम्मेदार नहीं होता। अब हम सात एकल परिवार बना रहे हैं। इस वत जब भारतीय सशस्त्र बल चीन और पाकिस्तान से सटी अनसुलझी सरहदों पर भारी अलर्ट की स्थिति में तैनात हैं, केंद्र सरकार नहीं चाहती थी कि ओएफबी की ताकतवर कर्मचारी यूनियनें डीपीएसयू की प्रकिया में गड़बड़ी पैदा करें। सरकार ने 30 जून को अनिवार्य रक्षा सेवा अध्यादेश 2021 लागू किया, जिसमें रक्षा कामों को अनिवार्य सेवा और हड़तालों को गैरकानूनी घोषित करके ओएफबी यूनियनों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल के आह्वान की हवा निकाल दी। डीपीएसयू को स्वायत्तता देने और साथ उन्हें जवाबदेह तथा चुस्त-दुरुस्त बनाने का फैसला ले लिया गया है।
इस पुनर्गठन से आयुध कारखानों को उत्पादक और लाभदायक परिसंपत्तियों में बदलने, उनके तमाम उत्पादों की विशिष्टता में गहराई लाने, प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ाने और गुणवत्ता तथा लागत-दक्षता में सुधार की उम्मीद है। सरकार ने पिछले साल रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए. रक्षा मैन्यूफैचरिंग का टर्नओवर बढ़ाकर 2025 तक 35,000 करोड़ रुपए के निर्यात सहित 1.75 लाख करोड़ रुपए करने का लक्ष्य है। एमओडी के रक्षा उत्पादन विभाग के हाथ अगले कुछ महीनों के लिए काम से लबालब हैं। उसे न केवल नए डीपीएसयू के पंजीकरण करवाने हैं बल्कि उनके निदेशक मंडलों की नियुति करके मौजूदा आयुध कारखानों के भीतर उनके कॉर्पोरेट दफ्तर स्थापित करने की थकाऊ प्रक्रिया शुरू करनी है। सातों निगमों के मुख्यालय चार राज्यों के पांच शहरों में होंगे। उनमें से तीन उत्तर प्रदेश के कानपुर में होंगे। यह प्रक्रिया बीते दो दशकों में भारत के दो सबसे बड़े निगम बनाने से कहीं ज्यादा जटिल होगी। अतूबर 2000 में सरकार ने तत्कालीन दूरसंचार सेवा विभाग को निगम में बदलकर भारत संचार निगम लिमिटेड बनाया था। 2006 में केंद्रीय वित्त मंत्रालय के तहत चार टकसालों, चार छापेखानों और एक कागज मिल को सरकारी की स्वामित्व वाली संस्था एसपीमसीआइएल में बदला गया था।
आगे की चुनौतियां: बीते चार दशकों में कम से कम चार विशेषज्ञ समितियों ने ओएफबी को निगम बनाने की सिफारिश की थी। मगर एक के बाद एक सरकारें राजनैतिक इच्छाशति की कमी और ओएफबी यूनियनों की हड़ताल के डर से हिचकती रहीं। निगम बनाने की सबसे हालिया सिफारिश लेफ्टि. जनरल (सेवानिवृत्त) डी.बी. शेकटकर की अध्यक्षता वाली एमओडी की विशेषज्ञ समिति ने दिसंबर 2016 में की थी। समिति ने मुनाफा न दे पाने की वजह से 11 आयुध कारखानों को तत्काल बंद करने का सुझाव दिया था। फिर भी सरकार ने डीपीएसयू के नए ढांचे में सभी 41 आयुध कारखानों और उनके कर्मचारियों को बनाए रखना चुना है। डीपीएसयू बनाने इस काम का एक हिस्सा भर है। ज्यादा बड़ी चुनौती उन्हें जिंदा रख पाना है। आयुध कारखानों के 120 साल के इतिहास में इन निगमों को रक्षा ऑर्डरों के लिए प्रतिस्पर्धा में उतरना पड़ेगा। आयुध कारखाने सशस्त्र बलों को गोला-बारूद की अबाध आपूर्ति के लिए विशाल युद्ध उत्पादन एजेंसी के तौर पर बनाए गए थे। किसी औपचारिक करार पर दस्तखत नहीं किए गए, केवल इंडेट या मांगपत्र दे दिए गए। 1801 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने कंपनी की सेनाओं के वास्ते तोप और गोले बनाने के लिए कोलकाता के काशीपुर में गन ऐंड शेल फैट्री कायम की। 1944 तक ब्रिटेन ने 13 और फैट्रियां बनाईं।
स्वतंत्र भारत ने 1949 और 2010 के दरमियान 27 और कारखाने स्थापित किए। सबसे बड़ा विस्तार, जिसमें 16 फैट्रियां जोड़ी गईं, 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद हुआ जब भारतीय सशस्त्र बलों का आकार बढ़कर दोगुना हो गया। आयुध कारखानों में पहला बड़ा और सोद्देश्य सुधार 1979 में हुआ, जब चेयरमैन और निदेशक मंडल की अगुआई में ओएफबी का गठन करके सभी 41 इकाइयों को इसके मातहत ले आया गया। मगर ओएफबी के कमजोर होने से हरेक आयुध कारखाना मैनेजर की अगुआई में स्वतंत्र संस्था की तरह काम करता रहा। चूंकि ये आयुध कारखाने डीओपीपी के मातहत महकमों की तरह काम करते हैं, वे अलग बैलेंस-शीट नहीं रखते। जो सेना उनकी सबसे बड़ी ग्राहक है और जिसे वे टैंक और होवित्जर सहित अपने 1,000 मुख्य उत्पादों के बड़े हिस्से की आपूर्ति करते हैं, उसके साथ किसी करार पर दस्तखत नहीं करते। सातों डीपीएसयू के वजूद में आते ही इस सब पर विराम लग जाएगा। एमओडी के एक बड़े अफसर निगम बनाने के पीछे तिहरी वजह बताते हैं—सरकार की एक-एक पाई ज्यादा से ज्यादा वसूलना, हथियारों का आयात कम करना और निर्यात बढ़ाना। ये अधिकारी कहते हैं, मूल आधार यह है कि मौजूदा ढांचा नाकाम हो चुका है, इसलिए हम पुनर्गठन कर रहे हैं। नए निगम मुनाफे के इरादे से चलाए जाएंगे और गलतियों के लिए जवाबदेह होंगे।
यह कहना आसान है, कर पाना कठिन: खुले बाजार में डीपीएसयू को सर्वश्रेष्ठ से मुकाबला करना होगा. मसलन, ओएफबी के उत्पादन का सबसे बड़ा हिस्सा विस्फोटक हैं। नई व्यवस्था में 12 कारखानों को पुणे के खड़की स्थित एक निगम के मातहत लाया जाएगा। इसे दुनिया की चौथी सबसे बड़ी विस्फोटक बनाने वाली नागपुर स्थित कंपनी सोलर इंडस्ट्रीज सहित निजी क्षेत्र की बेहद चुस्त-दुरुस्त कंपनियों के साथ तगड़े मुकाबले में उतरना होगा। हथियारबंद वाहन बनाने वाले डीपीएसयू को निजी क्षेत्र की दिग्गज कंपनी लार्सन ऐंड टुब्रो के साथ मुकाबला करना होगा, जिसने चार घंटों के भीतर सेना को 100 स्वचालित होवित्जर (टैंकों के ऊपर लगाई जाने वाली) बनाकर दे दी थीं। सरकारी कारखानों को पुणे स्थित निजी कंपनी भारत फोर्ज के साथ मुकाबला करना होगा। इसके पास तमाम किस्म की होवित्जर और हथियारबंद वाहन हैं, जो सेना को सप्लाई किए जा रहे हैं। डीपीएसयू कारगर हो पाएंगे: निजी क्षेत्र की एक रक्षा कंपनी के रक्षा व्यवसाय प्रमुख डीपीएसयू के कारगर होने को लेकर संदेह जताते हैं। वे कहते हैं, कुछेक बड़े निगम, मसलन वे जो जंग वाले वाहन और गोला-बारूद बना रहे हैं, बचेंगे। बाकी के बारे में मैं यकीन से नहीं कह सकता। ओएफबी के पूर्व अधिकारी आयुध कारखानों के बीच आपसी तालमेल की समस्या की तरफ इशारा करते हैं।
खासकर जब अंतर फैट्री मांगों’ या एक फैट्री की तरफ से सहोदर इकाई से कलपुर्जे, ढलवां और गढ़वा हिस्सों की आपूर्ति की गई मांगों की बात आती है। उन्हें आशंका है कि नए निगम इस बैकवर्ड इंटीग्रेशन’ या प्रतिगामी संयोजन में रोड़े अटकाएंगे जिससे ऑर्डर पूरे करने में देर हो सकती है। ओएफबी के पूर्व चेयरमैन हरि मोहन कहते हैं, हथियारबंद लड़ाकू वाहन एक निगम बनाएगा, पर उन्हें दूसरे निगम इंजन फैट्री से आपूर्ति की जरूरत होगी और कानपुर से, जो तीसरा निगम है, बंदूक की नलियां लेनी होंगी। इनमें से हरेक लेनदेन के लिए अब टेंडर जारी करने और अंतिम ऑर्डर देने होंगे. ठेकों को अंतिम रूप देने में देरी होगी। डीपीएसयू पर लगा दांव: ओएफबी यूनियनें सरकार से अगले पांच साल के ऑर्डरों का भरोसा मांग रही हैं ताकि निगम कारगर हो सकें। ओएफबी के कर्मचारियों की विशाल फौज को लेकर भी सवालिया निशान हैं। रक्षा मंत्रालय का कहना है कि वह ओएफबी के तमाम कर्मचारियों के हितों की हिफाजत करेगा। उत्पादन इकाइयों के कर्मचारियों को शुरुआत में दो साल के लिए डीड डेपुटेशन पर निगमों में भेजा जाएगा।
ऐसा करते हुए केंद्र सरकार के कर्मचारी के तौर पर उनकी सेवा शर्तें नहीं बदली जाएंगी। दो साल बाद कर्मचारी को सरकारी सेवा में बने रहने या नए निगम में हमेशा के लिए जाने का विकल्प दिया जाएगा। निगम की तरफ से दिया गया पैकेज सरकारी वेतनमान से कतई कम नहीं होगा। पेंशन और दूसरे लाभ भी जस के तस बने रहेंगे। जिन रक्षा जमीनों पर आयुध कारखाने स्थापित हैं, उनका या होगा: ओएफबी के पास करीब 60,000 एकड़ रक्षा जमीनें हैं, जिन पर उसने फैट्रियां, आवासीय कॉलोनियां, अस्पताल और खेल सुविधाएं बना रखी हैं। ये जमीनें ए1′ या मूल रक्षा जमीन की श्रेणी में आती हैं, जिनका किसी दूसरे मकसद के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। एमओडी बारीकी से देख-परख रहा है कि इन जमीनों का इस्तेमाल कैसे किया जाए. इनमें से कुछ डीपीएसयू को लीज पर दी जाएंगी जबकि बाकी एमओडी के अधिकार में रहेंगी। भारत के धमाकेदार रक्षा सुधार लंबे वत से चल रहे हैं। अब आखिरकार रक्षा कारखानों की सेहत दुरुस्त हो सकती है। डीपीएसयू की उपादेयता सुनिश्चित करना सबसे बड़ी चुनौती होगी। उन्हें अपने उत्पादों के लिए ऑर्डर हासिल करने के मामले में निजी खिलाडिय़ों से होड़ लगानी होगी।
संदीप उन्नीथन
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)