वैसे तो शिवा जी अहंकार नहीं करते थे, वे वीर तो थे ही और कभी-कभी वीर व्यति के भीतर सूक्ष्म अहंकार पनप जाता है। रामगढ़ का किला बन रहा था, शिवा जी वहां निरीक्षण करने पहुंचे। शिवा जी ने किले पर देखा कि कई मजदूर काम कर रहे हैं। उनके मन में एक भाव जागा कि मैं किला बनवा रहा हूं तो कई लोगों को जीविका मिल रही है, मेरे कारण। शिवा जी के मन में सूक्ष्म सा मैं और मेरा का भाव उतर गया। उसी समय उनके गुरु रामदास जी वहां पहुंचे। रामदास जी सिद्ध महात्मा थे, वे शिवा जी के पास खड़े होते ही समझ गए कि इनके अंदर कुछ चल रहा है। वहां एक छोटी सी चट्टान थी। गुरु रामदास ने शिवा जी से पूछा, कि ये चट्टान यहां क्यों है? शिवा जी ने उत्तर दिया, जब यहां रास्ता और द्वार बनेगा तो इस चट्टान को हटा दिया जाएगा। गुरु ने कहा, कि इसे अभी तुड़वाओ। गुरु के कहने पर शिवा जी ने उस चट्टान को तुड़वाया।
जब चट्टान टूटी तो उसमें एक छोटा सा गड्ढा था, जिसमें पानी भरा हुआ था और एक जीवित मेंढक बैठा था, जो उचककर भाग गया। जैसे ही मेंढक कूदा, शिवा जी के मन में एक विचार आया कि मेरे गुरु ने ये चट्टान अभी यों तुड़वाई? मेरे मन में ये भाव आ गया था कि मैं किला बनवा रहा हूं, इन लोगों की रोजी-रोटी का कारण बन रहा हूं। जबकि ऊपर वाला हर एक की व्यवस्था करता है। चट्टान के भीतर भी परमात्मा की कृपा से कोई प्राणी जीवित रह सकता है। सीख – गुरु कभी-कभी ऐसी कृपा कर देते हैं कि शिष्य का अहंकार खत्म हो जाता है। कभी भी किसी काम का अहंकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसके पीछे परम शति काम कर रही होती है। अगर जीवन में कोई अनुभवी या गुरु कुछ बात कहे तो उसे गंभीरता से मानना चाहिए।
पं. विजयशंकर मेहता
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)